कलमकार - कविता - सौरभ तिवारी

कहाँ गए वो कलमकार
जो सच को सच लिख पाते थे,
जिनके शब्दों की गर्जन से
सिंघासन भी हिल जाते थे ।
चौथा खम्बा लोकतंत्र का
और समाज का दर्पण था ,
जिनके दिल में मानवता थी 
त्याग और समर्पण था ।
शब्द शब्द साहित्यिक थे 
अक्षर अक्षर गहराई थी,
दीनों के हित के रक्षक थे
और दिल में पीर पराई थी ।
आफ़त में और घोर रात में
कलम से अलख जगाते थे,
अंधकार को दूर भगाने
अक्षर दीप जलाते थे ।
न वेतन, न कोई लोलुपता
निःस्वार्थ भाव था सेवा का,
जीवन समर्पित जनसेवा को
मोह नहीं था मेवा का ।
कांधे पर खादी का झोला
कलम जेब की  शान थी,
आदर्शों की खातिर लड़ना
यह उनकी पहचान थी ।
 ईमान की स्याही को भरकर
सत्य की कलम चलाते थे,
कागज के अखबारों से 
जो  इतिहास बनाते थे ।
पर युग कुछ ऐसा बदला
साहित्य से नाता छूट गया,
भ्रष्ट मुक्त भारत का सपना
लगता है अब टूट गया ।
पत्रकारिता अपनाते हैं 
कुछ अपने पाप छिपाने को,
सच्चाई का ढोंग दिखाते
दुनियाँ को भरमाने को ।
अखबारों ने परिभाषा बदली
संवादों के, छपने की,
उनको तो केवल चिंता है 
अखबारों के खपने की ।
कभी समाज का दर्पण 
कहलाते थे अखबार, 
शब्द शब्द से थर्रा जाते
दिल्ली के दरबार ।
कलमकार ही ताकत है
जनता की अभिव्यक्ति है,
गूंगों की आवाज है जो
ये सच्ची जनभक्ति है
अपनी शक्ति को पहचानो
अपने बल का सम्मान करो,
तुम सत्य के वीर सिपाही हो
मत झूठों का गुणगान करो ।
अब भी कुछ सच्चे कलमकार है
जिनको आगे बढ़ना होगा,
जो इतिहास रहा है पहले
फिर से उसको गढ़ना होगा ।
वही साहित्यिक खुशबू आए
संवादों की, बोली में,
इतनी शक्ति अक्षर में हो
न हो बंदूक की गोलीं में ।

सौरभ तिवारी - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

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