संभव हो तो, कुछ सब्र करो - कविता - दिनेश कुमार मिश्र "विकल"

मत निकलो बाजार में तुम,
कीमती आभूषण पहने तुम,
हो गर संभव तो,योग करो ।
संभव हो तो, कुछ सब्र करो।

लाना है सामान अगर,जाएं !
स्वयं थैला- बोरी लेकर जाएं,
संभव हो ? गैरौं पै रहम करो। 
संभव हो तो, कुछ सब्र करो। 

थूकना -मांगना होगा बंद गर ,
तंबाकू खाना हो,अभी से बंद ,
संभव हो तो,सौंफ खाया करो। 
संभव हो तो ,कुछ सब्र करो ।

सिगरेट, शराब, खैनी सभी ,
ये श्मशान का मार्ग दिखाते,
संभव हो तो,दूध पिया करो।
संभव हो तो, कुछ सब्र करो। 

कैंसर को बुलावा जो दोगे, 
तब ये शरीर, नष्ट होगा ही,
संभव हो तो,प्राणायाम करो। 
संभव हो तो, कुछ सब्र करो ।

प्रशासन  हमारे साथ सदा ,
जीना चाहो दो गज दूर रहो,
संभव हो तो,योगासन करो। 
संभव हो तो,कुछ सब्र करो।

ये भागेगा, पीठ दिखाएगा ,
अधिक समय घर रहिएगा, 
संभव है तुम, विश्वास करो।
संभव हो तो, कुछ सब्र करो।

दिनेश कुमार मिश्र "विकल"

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