बेटियाँ - कविता - सुषमा दीक्षित शुक्ला


बेटियाँ शब्द  एक प्रतीक है ,
अहसास है मर्यादा का ,
गहन अपनत्व का ,
माता के ममत्व का 
,पिता के दायित्व का ।
ये बेटियां गंगा  की पावन धार सी,
बाबुल के स्वक्षन्द आँगन में ,
रुनझुन पायल की झंकार बन,
सुकोमल पद्म पुष्प की भांति ,
पल्लवित पल प्रतिपल पनपती हैं।
सँवरती  है  निखरती हैं ,
माता पिता की डोर थाम बढ़ती हैं
भाई के साथ बचपने की ,
अल्हड़  सी  शैतानियां ,
उसकी नटखट सी नादानियां
भैया के नखरे ,शरारतें
इन सबको  पावन प्यार का
प्रारूप देती ये बेटियां,
समाज मे सर्वदा कमजोर,
समझी जाने वाली, 
रक्षा की पात्र मानी जाने वाली ,
ये बेटियाँ  ही तो हैं जो
पल प्रतिपल सबका ख्याल, रखती  हैं  
बेइंतहा प्यार करती हैं 
पापा की दवाई हो या पानी देना,
माँ की कंघी हो या  फिर
काम मे हाथ बटाते रहना 
,या फिर भाई का बिखराया सामान 
करीने से लगाना ,
सब कुछ वही तो सम्हालती है।
कम पैसों मे काम चला 
अपना बचा हुआ पाकेट मनी तक  लौटा देतीं है  ये बेटियाँ ,
सचमुच कितना गजब ढाती हैं ये बेटियाँ ...
फिर एक दिन सबको रुला  दूर 
ससुराल चली जाती है ये बेटियाँ।
अपने रक्त सृजित रिश्ते छोड़ ,
पराये लड़के को प्रियतम  मान,
निछावर हो जाती  हैं ये बेटियाँ।
दूसरे के परिवार को स्वीकार 
अपनत्व लुटाती हैं ये बेटियाँ ।
कितने भी विपरीत हालात हों,
मगर फोन से ही सही  दूर होकर भी,
मंम्मी पापा को उनका रूटीन
याद दिलातीं हैं ये बेटियाँ ...।
सच तो ये है  कि समाज मे 
हाशिये पर देखी जाने वाली 
ये कमजोर कही जाने वाली बेटियां,
वास्तव मे परिवार की सबसे
मजबूत डोर होती हैं ये बेटियाँ ...।

सुषमा दीक्षित शुक्ला - लखनऊ (उ०प्र०)

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