आवारा सा लगता हूँ मैं
जब पाता खुद को सड़को पर
किंचित, चिंतित , उबा सहमा हुआ
जैसे ज़िन्दगी बन गयी हो एक जुआ
क्या हो रहा है, क्या होने लगा है
ये वक़्त का मांझा क्या दिखा रहा है
अब तो लौट के आओ
अब न मुझको तुम भटकाओ
तांडव कोलाहल मचता हुआ
मुझमे मैं मरता हुआ
मैं अब थका सा , हारा हुआ
की जिन्दा रहू या हूं अधमरा
ज़िन्दगी में ही तुम आ जाओ
मौत पे तुमसे पेहचान तक ना होगी
तुम दुल्हन किसी और की बनी रहोगी
और मैं तंबू में सोता रहा
कुछ देर पहले आते तो मिलता
अब तो लो बस मेरा अलविदा !!!!
कुमार सौरव - सीतामढ़ी (बिहार)