संदेश
राष्ट्र की व्यथा - कविता - रामासुंदरम
मेरी ईंट बजा गए मेरा गारा ले गए, अपने रजवाड़ों के ख़ातिर मुझे खंडहर बना गए, मेरी कोशिकाओं में जो अनवरत नदियाँ प्रवाहित होती थीं वे आज शु…
अक्सर - कविता - ऋचा तिवारी
वो कहते हैं अक्सर, "औरत होने का फ़ायदा उठाती हूँ मैं", पर कभी औरत होने का नुक़सान, क्या देखा है तुमने! मौक़ा पाते ही, छेड़ने म…
व्यथा धरा की - तपी छंद - संजय राजभर "समित"
चीख रही धरती। कौन सुने विनती।। दोहन शाश्वत है। जीवन आफत है।। बाढ़ कभी बरपा। लांछन ही पनपा।। मौन रहूँ कितना! जख्म नही सहना।। मान…
कृषक व्यथा - कविता - सूर्य मणि दूबे "सूर्य"
धरती सेवक, अन्न प्रदाता भूखो के तू कष्ट मिटाता, बारिश, गर्मी, शीतलहर में तू अपना कर्तव्य निभाता।। सूखे में खुद भूखा मरता बाढ़ में तू …
वेश्या व्यथा - कविता - मनोज यादव
शायद देह बाजार गंदे होते होंगे इसलिए किसी को इश्क मुकम्मल नही होता। बस एक आशियां होता है और बस एक रात की बात होती है।। नही कोई…
गरीब की व्यथा - कविता - मधुस्मिता सेनापति
जीते हैं हम गरीबी में सोते हैं हम फुटपाथों पर खाने के लिए, दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती, फिर भी रहते हैं हम टूटे हुए अध- जले …
गांव की व्यथा (वेदना) - कविता - दिनेश कुमार मिश्र "विकल"
जिस मिट्टी में जन्मा, पला-बढ़ा,खेला- कूदा, पढा़, संस्कारित हुआ , रोजी के नाम पर पर शहर की ओर कूंच कर गया। कमानी थी उसे रोटी, …