वेश्या व्यथा - कविता - मनोज यादव

शायद देह बाजार गंदे होते होंगे
इसलिए किसी को
इश्क मुकम्मल नही होता।
बस एक आशियां होता है
और बस एक रात की बात होती है।।

नही कोई पूछता उस प्रेयसी का हाल,
नही कोई बात होती है।
बस होते है कुछ सिक्के, या रूबल
और खनक, रगड़ती चूड़ियों के।।

हर रात कितनी सन्नाटे वाली होती है
बस ग्राहक की हुँकार और मेरी चीखे सुनाई देती है।
ना ही  इस रात का कोई अंत होता है, ना ही इतिहास
बस होता इतना है कि
चाँद ढलता जाता है और रात चढ़ती जाती है।।

मैं बिकाऊ नही हूँ, जुरूरतमंद हूँ,
कुछ सिक्कों की, और कुछ खानों की
कई रात पिसने के बाद तो  शेर- पसेर भर आटा बनाती हूं
और बना पाती हूँ खुरदरी रोटियां।।

मैं मजबूर भी हूँ और मजदूर भी
बिस्तर बदलने में तुममे और मुझमे फर्क थोड़ा ही है
मुझे भूख सताती है और तुम्हे हवस की मजबूरियां।।
        
मनोज यादव - गढ़वाल, श्रीनगर (उत्तराखंड)

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