चक्रवर्ती आयुष श्रीवास्तव - प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)
उर्मिला का वियोग - कविता - चक्रवर्ती आयुष श्रीवास्तव
मंगलवार, नवंबर 05, 2024
तुम गए हो दूर जो, प्राण अब तड़प रहे,
मेरे हिय में शूल-सा, दर्द है कसक रहे।
तुम बिन ये प्रहर सभी, शून्य से प्रतीत हों,
नीरहीन मेघ से, नयन अब दुखित हों।
वियोग का यह भार, सहे कौन कैसे,
हर एक घड़ी लगे, मानो बरसते अंगारे।
प्रिय सखी भी संग न, सांत्वना कहे मुझे,
दर्द की अमर बेल, आँचल में लिपटे मुझे।
जब तुम्हें पुकारूँ मैं, व्यर्थ हो मेरी व्यथा,
आवाज़ की सीमा, लाँघती नहीं खग सा।
तुम दूर हो वन में, मैं सन्नाटों में खोई,
सूनी है पथरीली, मेरी करुणा की रोई।
स्मृतियों में खोई हूँ, वह मुखचंद्र प्यारा,
हर पल में छवि तेरी, जीवन का सहारा।
जागती हूँ रातों में, गूँजते तेरे बोल,
मन मेरे संग, घुल गए तेरे प्रेम के घोल।
आँसू की इस धार को, कैसे रोकूँ आज,
हर रजनी सुनी है, हर प्रभात बैराग।
तुम्हारे बिना यह दिन, व्यर्थ से प्रतीत हों,
इस देह का जीवन, जलता हुआ शीत हो।
सपनाओं की डोर भी, टूटी सी लग रही,
हिय की अग्नि का ताप, जीवन को दग रही।
तुम बिन मेरी साँसें, मरुथल सी बिछी हैं,
आशा की धारा भी, अब रुकी थमी है।
वन के उस पथ पर, तुम चलते हो जब,
नयन मेरे अश्रुओं का, सरिता बन रहे तब।
तुम हो वह ध्रुवतारा, मुझसे दूर हो गए,
प्रेम की उस सीता में, तुमसे ही सजे रहे।
जैसे वन के पुष्प, शुष्क हो गए देखो,
ऐसे ही मन मेरा, तड़पे तुम्हारे बिन खो।
तुम्हारे विछोह का दुःख, अब मुझे सहेना,
आशाओं की माला, टूट गई है कहना।
विरह का यह ताप, सहे नहीं जाए अब,
हर एक क्षण में बस, आँसुओं का ही रब।
श्रीराम के संग हो, तुम वन में कहीं दूर,
मेरे आँचल में बस, अश्रु का ही नूर।
वियोग की यह पीड़ा, सहती मैं अकेली,
तुम्हारे बिना यह जीवन, जलता है कुटीली।
रजनी की चुप्पी में, दिल तुम्हें पुकारे,
प्रेम की वह चाह, दिल से ही बिसारे।
जाते समय की वह छवि, मन में बसी है,
विरह की अग्नि ने, आशाओं को धसी है।
रहूँ मैं तुम बिन भी, पर तुझमें ही खोई,
स्मृतियों की परछाई, संग ले जाए कोई।
वन के उस पथ पर, तुम कहीं जब चलो,
मेरी विरह व्यथा को, प्रेम से सहलाओ।
तुम्हारे बिना मैं अब, सूनी हो चली हूँ,
प्रेम में अभागी, पीड़ा में पली हूँ।
तेरी वह मुस्कान, आँखों में बसी है,
तू वन की राह चला, विरह की कथा सजी है।
सपने में जब आओ, दिल को बहलाओ,
इस दर्द की छाया को, और भी गहराओ।
सुनती हूँ वन की हवा, तेरी सुगंध से भरपूर,
तू चाहे मुझसे दूर, पर निकट हर सूर।
तेरी यादें ही अब, साथी बन चलेंगी,
तेरे बिना यह रात, अश्रु से सजेंगी।
उर्मिला का हृदय, अब शून्य सा लगता है,
तेरे बिना जीवन, अधूरा सा लगता है।
प्रणय की वह आशा, संग ले चली हूँ,
प्रिय के वियोग में, प्रेम के पथ बसी हूँ।
साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos
विशेष रचनाएँ
सुप्रसिद्ध कवियों की देशभक्ति कविताएँ
अटल बिहारी वाजपेयी की देशभक्ति कविताएँ
फ़िराक़ गोरखपुरी के 30 मशहूर शेर
दुष्यंत कुमार की 10 चुनिंदा ग़ज़लें
कैफ़ी आज़मी के 10 बेहतरीन शेर
कबीर दास के 15 लोकप्रिय दोहे
भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है? - भारतेंदु हरिश्चंद्र
पंच परमेश्वर - कहानी - प्रेमचंद
मिर्ज़ा ग़ालिब के 30 मशहूर शेर