राजेन्द्र कुमार पाण्डेय 'राज' - बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
खनकती चूड़ियाँ - कविता - राजेन्द्र कुमार पाण्डेय 'राज'
शनिवार, अक्टूबर 19, 2024
चाँद सरीखा मुखड़ा दमके
सितारों सा बिंदिया चमके
काले मेघ तेरे कुन्तल बिखरे
लट उलझे उगीलियाँ सँवारे
घिर घिरकर आई घटाओं ने
सुलझे तेरे केशों को उलझाए
चाँद की चंचल किरणों जैसी
तूने किया आज सोलह शृंगार
ललाट पर दमके रंग सिंदूरी
आँखों में लज्जा ज्यों उतरी
हीरे की कन चमके नथनिया
अधरों में मुस्काए साँवरिया
पंखुड़ियों सा ज्यों खिलकर
बारम्बार मचले तेरा चितवन
बार बार मचले मेरा ये मन
होंठो पर लगाई लालिमा ने
तुम ने किया आज सोलह शृंगार
कानों में मचलते कर्णफूल
अनुपम लगते सुन्दर बाला
स्वर्णिम सी लता की कलियाँ
कुछ इज़हार करते बालियाँ
सुराहीदार गले में स्वर्णहार
आम्रकुंज की मञ्जरीयों ने
ह्रदय का स्पंदन बढ़ता जाए
तुम ने किया सोलह शृंगार
हाथों में मेरे नाम की मेहन्दी
गोरी गोरी कलाइयों में सजती
रंग बिरंगी खनकती चूड़ियाँ
जूही के नवपल्लवों ने लिया
महकते हुए कंगन का साकार
चूम लूँ तेरे हाथों को ले हाथ
तुम ने किया आज सोलह शृंगार
फूलों से चेहरे पर छाई ख़ुशी
गालों पर खेल रही उंगलियाँ
चमचमाती सीप की मोतियों
अँगूठी पहना गई आ सीपियाँ
सिंदूरी रंग परिधान से लिपटी
सोहे ज्यों लागे उतरी कोई परी
चुनरी बलखाए कटि मझरिया
सितारों से सजी हुई कमरबंद
खिली खिली चाँद चंचलिका
तुम ने किया आज सोलह शृंगार
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