प्रवीन 'पथिक' - बलिया (उत्तर प्रदेश)
कैसी मायूसी है - कविता - प्रवीन 'पथिक'
गुरुवार, अक्टूबर 10, 2024
हर बार
कुछ छोड़ जाने को जी चाहता है।
हर बार
कुछ खो जाने को जी चाहता है।
कैसी मायूसी है!
जो कभी जाती नहीं।
हर बार कुछ हो जाने को जी चाहता है।
एक कहानी अभी अधूरी है।
जिसका अंत बहुत ज़रूरी है।
एक अंधा कुआँ है,
मायूसी जिसकी गहराई है।
जिसमे डूब जाने को जी चाहता है।
मिलते हैं अनेक लोग
जिनकी दुनिया अलग होती है।
रचते एक स्वप्निल संसार
जिसमे सारी दुनिया सोती है।
उस दुनिया में सो जाने को जी चाहता है।
एक ख़्वाब बुना था कभी,
जहाॅं चारों तरफ़ हरियाली थी;
जिसमें रंग बिरंगे पुष्प थे;
रंग बिरंगी तितलियाॅं थीं;
भौरों का गुॅंजार था;
और था पंछियों का कलरव भी।
सुगंध थी, मादकता था
एक अनकहा राज़ गहरा था।
स्वप्न टूटे, नींद खुली।
पाया, और कुछ नहीं, बस! शून्य था।
उस शून्य-सा हो जाने को जी चाहता है।
हाॅं! सब कुछ खो जाने को जी चाहता है।
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