अपराध बोध की व्यथा - कविता - सुरेन्द्र प्रजापति

पिटे जाने की ग्लानि
अपराध-बोध की व्यथा;
पुरे माहौल को पीड़ा से भर देती है

सुख की मटमैली चादर
पूरे वजूद को जकड़ लेता है
ज़ंजीर की तरह
जीने का अभिशाप एक टीस भर देती है

आँखे छिपने की जगह तलाशती है
स्वाँग रचता षड्यंत्र फिर-फिर घेर लेता है
दिल-ओ-दिमाग़ दुहाई देता राहत खोजती है
नीम अँधेरे की हताशा विलाप करता है

रात के स्वप्न में कातर भीरुता, 
ललकारती–
स्वयं को!

–उठो... उठो...
विरोध की भाषा भूल गया!
दहशत में क्या लगाया जीवन का अर्थ?
अपने पीठ पर ख़ामोशी का आवरण ओढ़े
विवशता में ख़ौफ़ का बीज उगाए
ऐसा जीना भी है व्यर्थ

अपने हक़ को गिरवी रख
उम्मीद की टूटन
सपनों की घुटन, विरान, बेचैन
रह-रह रुदन

इस बेचारगी से निकलने की अधीरता
माँगती है मौन का हिसाब
असहमति का निर्माण कर
स्वाधीन है सूर्य की किरणें
मुक्त है शब्द, स्वतंत्र है कविता


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