कोरस में गातीं - नवगीत - अविनाश ब्यौहार

बहुत दिनों से
नहीं आ रही
पुरवा की पाती।

धूप-दरीचे
हिले-मिले हैं।
मिटते शिकवे
और गिले हैं॥

मन मेरा
बंगाली है तो
तन है गुजराती।

छानी में है
कागा बोले।
आस-पास
मंगल क्षण डोले॥

वन में
सुंदर-सुंदर चिड़ियाँ
कोरस में गातीं।

ठकुर सुहाती
होने लगती।
मावस तम को
बोने लगती॥

जैसे कोई
मांँ बच्चे को
अक्सर बहलाती।


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