यह मेरी लघु अक्षरजननी,
सूने पथ का एक सहारा।
प्रतिक्षण ही मेरे उर रहती,
गगरी में भरती जग सारा।
कभी भोर लिखती, ऊषा वह,
कभी सांध्य-बेला अर्पण।
कभी रात्रि की मधुर रागिनी,
कभी समर्पण और तर्पण।
कभी अश्रुमय क्रंदन, विचलन,
कभी तृषित उत्पल लिखती।
लिखती पंथ अपरिचित, परिचित,
कभी दीप्ति उज्ज्वल लिखती।
भावों का पट खोल स्वयं ही,
लिख जाती स्वप्निल प्यारा।
यह मेरी लघु अक्षरजननी,
सूने पथ का एक सहारा।
कभी क्षितिज लिखती, संसृति वह,
कभी वह पुष्पों का विह्सन।
लिख जाती उद्वेलित मन वह,
कभी है लिखती वह सिहरन।
कभी वेदना का जल लिखती,
कभी पवन की आह स्वयं।
कभी तृप्ति और तृष्णा लिखती,
कभी पथिक की चाह स्वयं।
सह-सह संघर्षों की चोटें,
बन बहती अविरल धारा।
यह मेरी लघु अक्षरजननी,
सूने पथ का एक सहारा।
कभी सांत्वना का मन लिखती,
कभी शून्यता यह लिखती।
कभी प्रणय का अनुबंधन भी,
कभी सत्यता यह लिखती।
कभी यह निर्जन-वन लिखती,
कभी प्राण की व्याकुलता।
कभी यह निस्पंदन, स्पंदन,
कभी मिलन की आकुलता।
मोल न लेती है लिखने का,
लिख जाती अंतस प्यारा।
यह मेरी लघु अक्षरजननी,
सूने पथ का एक सहारा।
राघवेन्द्र सिंह - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)