जिनका विस्तृत हृदय पात्र था,
उनके हिस्से सिंधु आया।
जिनका शीतल मन था शोभित,
उनके हिस्से इंदु आया।
जिनकी वाणी में था गर्जन,
उनके हिस्से आए पयोधर।
जिनका मन था गरल पिपासा,
उनके हिस्से आए विषधर।
जिनका वेग यहाँ उद्वेलित,
उनके हिस्से आई तरंग।
जिनका मन शीतल था पावन,
उनके हिस्से आई गंग।
जिनके जीवन में थी ख़ुशियाँ,
उनके हिस्से आए रंग।
जिनकी दृष्टि चतुर्मुखी थी,
उनके हिस्से दिग् दिगंत।
जिनके मन में धैर्य प्रतीक्षा,
उनके हिस्से आई धरा।
जिनकी वाणी मधुयुक्त थी,
उनके हिस्से आई स्वरा।
जिनके मन में बसी अनंतता,
उनके हिस्से आया व्योम।
जिनके मन में प्रेम-भक्ति थी,
उनके हिस्से आया ओम।
जिनके मन में क्रोध, ईर्ष्या,
उनके हिस्से आई अग्नि।
जिनके मन थे विटप वनों के,
उनके हिस्से दावाग्नि।
जिनके मन मुस्कानयुक्त थे,
उनके हिस्से आए सुमन।
जिनके मन विचलित से रहते,
उनके हिस्से आए स्वपन।
जिनके मन में सदा प्रफुलता,
उनके हिस्से आया हर्ष।
जिनके मन में कड़ा परिश्रम,
उनके हिस्से था संघर्ष।
देख रहा था स्वयं अभागा,
सबके हिस्से कुछ तो आया।
अपने हिस्से का हर मन ने,
जीवन में था कुछ तो पाया।
जीवन के इस महापंथ पर,
मैं भी निज अस्तित्व खोजता।
क्या हूँ मैं, और कौन यहाँ मैं,
भोर, दुपहरी, साँझ सोचता।
क्या होगा मेरे हिस्से में,
यही बताने सरिता आई।
मेरे इस नीरस जीवन में,
मेरे हिस्से कविता आई।
राघवेन्द्र सिंह - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)