भाव - कविता - सिद्धार्थ गोरखपुरी

तुममें और मुझमें बस एक समानता है,
तुम भाव के भूखे हो और मैं भी।
माना के तुम्हारे भाव और मेरे भाव में
अंतर है ज़मीं आसमाँ का
पर शब्द तो एक है।
चलो बस शब्द को ही समान मान लो
इससे भी तो एक समानता मिल जाएगी मुझे।
अजीब फ़लसफ़ा ये भी है के
जब मैं ढूँढ़ता हूँ तो तुम नहीं मिलते
जब तुम तो मैं नहीं,
शायद ये भाव के ही कारण है।
मैंने ये कब नहीं माना के बस तुम ही मेरे हो,
बस तुम एक बार मान लो के मैं तुम्हारा हूँ।
यहाँ पर भी तो मशला भाव का है,
मैं महज़ भाव से तुम्हारा भाव लगा सकता हूँ,
ये बख़ूबी इल्म है मुझे,
बस मेरे भाव से अपने भाव को एक बार मिला दो,
फिर मैं मिल लूँगा तुमसे इसी भाव के बहाने।
मैं तुम्हे देख नहीं पाता, भला क्यों?
ये आँखें भी तो तुम्ही ने दी हैं,
शायद
भाव से भरी आँखें ही दीदार कर सकती हैं तुम्हारा।
शिवाले में नज़र आते हो एकदम शांत,
तुम्हारा भाव सदैव शांत नज़र आता है,
हो सकता है, यहाँ भी भाव की ज़रूरत है,
तुम्हे चलायमान देखने के लिए।
चलो एक बार सुन लो अरज मेरी भी,
नहीं बढ़ाना है भाव मेरा तो न बढ़ाओ,
बस अपना बना लो,
बढ़ाकर भाव मेरा या घटाकर भाव अपना।

सिद्धार्थ गोरखपुरी - गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)

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