सुनो सबकी करो अपने मन की - लेख - कुमुद शर्मा 'काशवी'

इस उपरोक्त लोकोक्ति (मुहावरे) का अर्थ कितना सीधा एवं सरल है ना! कि हमें बातें तो सबकी सुन लेनी चाहिए पर हमारे मन को जो अच्छा लगे उसी के अनुसार हमें कार्य करना चाहिए, अर्थात सलाह सबकी माननी चाहिए पर अपने लिए उचित निर्णय लेने की क्षमता, शक्ति सदा अपने हाथों में ही रखनी चाहिए। यह बात बिल्कुल सोलह आने सच साबित होती है कि "सुनो सबकी करो अपने मन की" क्योंकि आपसे बेहतर आपको कोई नहीं समझ सकता। आपको हमेशा अपने बारे में फ़ैसला लेने का हक़ होना ही चाहिए जिससे एक बात तो यह होगी कि आप अपने बारे में भला बुरा समझते हुए यथाशक्ति उचित निर्णय ले पाएँगे और दूसरी यह कि जब निर्णय आपने लिया है तो इसके लिए आप किसी और को उलाहना नहीं देंगे या उसे किसी भी बात के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराएँगे, उत्तरदायी आप ख़ुद होंगे। पर क्या हमारे पुरुष प्रधान समाज में जहाँ पुरुषों द्वारा लिए गए निर्णय को ही महत्व दिया जाता है नारी भी सक्षम है अपने हित का निर्णय लेने में? ये बात और है कि वह आज हर जगह पुरुषों के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चल रही है पर क्या वह ख़ुद को उतना ही मज़बूत और सक्षम पाती है? क्या वह हर जगह चाहे कार्यस्थल कोई भी हो अपने सहकर्मियों के द्वारा सताई नहीं जाती? क्या उसे सक्षम होते हुए भी कई बार हीन भावना का शिकार नहीं होना पड़ता? क्या उसे हर जगह सामंजस्य नहीं बैठाना पड़ता?

हमारी भारतीय सनातन संस्कृति में नारी को विशेष सम्मान का दर्जा दिया गया है। हमारे सभी पौराणिक ग्रंथों में नारी को देवी समान पूजनीय माना गया है, जहाँ एक तरफ़ उसे दया स्वरूपा, सहनशीलता की मूरत बतलाया गया है वहीं दुष्टों का संहार करने वाली कालरात्रि की संज्ञा भी दी गई है। नारी अबला नहीं सबला है। नारी को कभी सृजनहार, पालनकर्ता तो कभी संहारक की संज्ञा दी गई है। नारी सृष्टि का मूल है। पुरुष प्रधान समाज में भी नारी की महता को कम नहीं आँका जा सकता। नारी जीवन रथ का वह पहिया है जिसके बिना जीवन, सभ्य समाज की कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि एक वही है जो बच्चे के जन्म के साथ उसकी नींव को संस्कारों से सींचती है।

"कैसे कहूँ पहचान क्या है मेरी 
मैं तो रिश्तो से पहचानी जाती हूँ
मैं नारी...
कभी आधी तो कभी पूरी कहलाती हूँ"

नारी को देवी का दर्जा ऐसे ही नहीं दिया गया, उसे सहनशक्ति, सहनशीलता, कर्तव्यपरायणता की मूरत ऐसे ही नहीं कहा गया क्योंकि वही है जो अपने अस्तित्व को भूल अपनों की ख़ुशियों में अपनी पहचान ढूँढ़ती है। कच्ची मिट्टी सी वह हर रिश्ते के साँचे में ढाल ख़ुद को, सब के रंग में रंग सबके मन का करती जाती है। अपने परिवार के प्रति ख़ुद का जीवन न्योछावर कर वह किसी और के नाम से ही जानी जाती है। अपने अस्तित्व को भूल कभी बेटी, कभी माँ तो कभी गृहलक्ष्मी कहलाती है। चाहे नारी एक गृहणी हो या कामकाजी महिला वह अपने कर्तव्यों, दायित्वों का निर्वाहण बख़ूबी करती है। एक मकान को घर नारी ही बनाती है। नारी को माँ अन्नपूर्णा की आख्या भी दी गई है। चाहे साधन सीमित हो या सामान कम, उसकी रसोई में अपने परिवार वालों के लिए कभी खाने पीने की कमी नहीं होती। आज की नारी घर को भी संभालती है और दहलीज़ लाँघ कर धनोपार्जन मैं भी अपना पूर्ण सहयोग देती है। चाहे घर संभालना हो, बच्चों को पढ़ाना, पीटीएम अटेंड करना, घर के बुज़ुर्गों की देखभाल हो या छोटी से छोटी ज़िम्मेदारी से लेकर बड़ी से बड़ी चुनौती हर चीज़ में नारी को दक्षता हासिल है। वह घर के हर सदस्य की छोटी से छोटी ज़रूरतों का ख़्याल रखती है, उसे पूरा करती है। उसके पास सबके लिए समय होता है पर वह ख़ुद के लिए समय क्यों नहीं निकाल पाती? वह हर समय अपने को भूल अपने परिवार की ख़ुशियों के बारे में ही सोचती है, ऐसा या तो इसलिए है कि वह सोचती है कि उसके बग़ैर कुछ नहीं हो सकता या यह उसकी प्रकृति में शामिल है, उसका ममतामई कोमल हृदय जो उसे अपने बारे में सोचने को प्रेरित ही नहीं करता। पढ़ी लिखी नारी की बात तो छोड़िए एक आम महिला जो घरेलू सहायिका के रूप में काम करती है अपने परिवार को पालने, उसका भरण पोषण करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ती चाहे उसका पति शराब के नशे में उसे पीटता ही क्यों ना हो? बस वह यही सोचती है "मैं ही काफ़ी हूँ अपने अपनों के लिए, ज़रूरत है तो सिर्फ़ मेरे महत्व की, मेरे मान-सम्मान की।"
वह सोचती है कि उसके बिना उसके परिवार का क्या होगा पर उसके महत्व को कोई क्यों नहीं समझ पाता?

पर जब कभी भी वह अपने अस्तित्व को तलाशने निकलती है उससे ढेरों सवाल किए जाते हैं, ऐसा क्यों? जब तक वह अपने परिवार की ज़िम्मेदारियों, ख़ुशियों में अपनी ख़ुशियाँ ढूँढ़ती है तब तक उसके समय की क़ीमत कोई नहीं समझता पर जब उसी में से कुछ समय अपने लिए निकालना चाहती है तो वही समय सबके लिए क़ीमती क्यों हो जाता है? उसके काम में हाथ कोई नहीं बँटाना चाहता पर उसके काम में कमी हर कोई निकालना चाहता है चाहे घर हो या बाहर। समझदारी पर उसकी पीठ  थपथपाने पर गुरेज़ ज़रूर करता है पर उसकी ग़लतियों पर गिद्ध की तरह आँखें गडा़ए ज़रूर रखता है। चाहे घर हो या कोई भी कार्य क्षेत्र आज भी नारी के अस्तित्व पर सवाल खड़े किए जाते हैं तो फिर यह कहावत भी कहाँ नारी जीवन पर चरितार्थ होती नज़र आती है।
"मैं रमणी कैसे "सुनो सबकी करो अपने मन की" समझ पाऊँ
जब कफ़न भी अपना मैं अपने मायके से पाऊंँ।"

"मेरे कटे पंख देख 
मेरी उड़ान पर न संशय लगा 
हौसला अभी बाक़ी है 
एक नए आयाम का"

कुमुद शर्मा 'काशवी' - गुवाहाटी (असम)

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