ये बगिया धोखा खा बैठी - गीत - सुधीर सिंह 'सुधीरा'

शाख़-शाख़ पे उल्लू बैठा,
जड़ को दीमक खा बैठी।
माली निकला बेपरवाह,
ये बगिया धोखा खा बैठी।

खिला हुआ गुलशन था देखो अब ये उल्लिस्तान बना,
कोयल सारी, चुप बैठीं, अब उल्लू का दरबार सजा।
गठबंधन में कुछ कौवे भी बगिया में तैनात हुए,
कुछ गिद्धों को साथ लिया, कैसे ना ख़ुराफ़ात हुए?
कोयल, चिड़िया, गौरया ये बगिया सभी उड़ा बैठी।
माली निकला बेपरवाह,
ये बगिया धोखा खा बैठी।
शाख़-शाख़ पे...

गिद्ध बाज़ और उल्लू, कौवे, मनमानी पे उतर गए,
सावन में भी पतझड़ है, शाख़ों के पत्ते बिखर गए।
भोली भाली ये बगिया अपनी क़िस्मत पे रोती है,
जो थे कर्कश, नोंचने वाले, उनके दिन अब सँवर गए।
सारे दरिंदे मौज उड़ाएँ, बगिया अब तन्हा बैठी।
माली निकला बेपरवाह,
ये बगिया धोखा खा बैठी।
शाख़-शाख़ पे...

हरा भरा ये बाग़ था इसमें कोयल नग़मे गाती थीं,
सावन के आ जाने पर चिड़िया आवाज़ लगाती थीं।
एक थी मैना जो कलरव कर प्रेम की पींग चढ़ाती थी,
इक गौरैया कूद-कूद के फूले नहीं समाती थी।
जबसे उल्लू तंत्र बना, बगिया ही नूर गँवा बैठी।
माली निकला बेपरवाह,
ये बगिया धोखा खा बैठी।
शाख़-शाख़ पे...

गर माली हो समझदार, बगिया में बहारें आ जाएँ,
गर माली उल्लू जैसा, बगिया को कौन बच्चा पाएँ?
'सुधीरा' के इस गीत में बगिया अपने दर्द बता बैठी।
माली निकला बेपरवाह,
ये बगिया धोखा खा बैठी।
शाख़-शाख़ पे...

सुधीरा - गुरुग्राम (हरियाणा)

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