लड़के - कविता - अमित श्रीवास्तव

बेटे के जन्म पर जश्न मनाया जाता है,
कुल का दीपक है हर ओर जताया जाता है।
दीपक सी रोशनी देते हैं, तो जलन क्या वे सहते नहीं?
बस... वे लड़के हैं, इसीलिए किसी से कहते नहीं।

बचपन से सिखाया जाता है
तुम लड़के हो, हर फ़र्ज़ तुम्हारे हिस्से आता है,
देख हालात जला लेते हैं, बचपन अपना
पड़े ज़रूरत तोवबाल मज़दूरी करने में भी पीछे ये रहते नहीं,
लड़के हैं न इसीलिए किसी से कहते नहीं।

कुछ दिन रहें जो चैन से तो अपने ही घर में निकम्मे, नाकारा कहे जाते हैं,
घर हो कर भी घर की ख़ातिर बेघर भटकते जाते हैं।
माँ के सपने, पत्नी की इच्छा, बच्चों की ख़्वाहिशें
सभी के आशाओं की पतंग उड़ाने को
उलझे माझें की तरह कई जगह से तोड़े जाते हैं,
रहे जेब अगर खाली तो उनके अपने ही इन्हें छोड़े जाते हैं।

ऐसा नहीं की इन में आँसू नहीं...
लेकीन बचपन से बता दिया जाता है,
“बेटा तुम लडके हो और लड़के कभी रोते नहीं।”
कहना चाहते है ये बहुत कुछ, मगर कुछ ये कहते नहीं
पर ऐसा नहीं की ये सहते नहीं,
अरे ये लड़के हैं न इसीलिए किसी से कहते नहीं।

अमित श्रीवास्तव - शाहजहाँपुर (उत्तर प्रदेश)

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