माँ - कविता - विजय कुमार सिन्हा

शरीर के रोम-रोम में 
बह रहा है माँ का दूध 
लहू बनकर। 
यह एक ऐसा क़र्ज़ है 
जो कभी उतर नहीं सकता। 
बड़ी ही मीठी बोल है माँ। 
अच्छे-बुरे का अन्तर बता 
एक अच्छा इंसान बनाती माँ। 
माँ जैसा कोई दूसरा हो नहीं सकता। 
घर में माँ की मौजदूगी हीं 
घर को स्वर्ग बना देती है। 
इंसान के रूप में 
माँ भगवान की मूरत है। 
होता है जो कुछ दुख मुझे 
वह परेशान हो जाती है। 
अपने आँचल से जो पोछ देती चेहरा 
आधी बिमारी दूर हो जाती है। 
माँ के प्यार का कोई मोल नहीं 
माँ को कभी तकलीफ़ ना देना। 
उसके पैरों के नीचे की मिट्टी 
ललाट पे लगा लेना 
सारी तकलीफ़ चुटकियों में दूर। 
माँ के गोद की गर्माहट 
कितने भी कंबल ओढ़ लो 
मिल नहीं सकती। 
ईश्वर का सबसे बड़ा उपहार है माँ 
उसके चरणों में ही बसा सारा संसार। 
ख़ुद बिमार रहती 
पर घर के सारे काम करती है वो। 
कब किसे भूख लगी 
और कब प्यास, 
बिना बताए हीं 
जान जाती है माँ। 
किसी की नज़र ना लग जाए 
इसकी भी चिंता रहती है उसे। 
इसलिए काला टीका लगाना 
माँ नहीं भूलती कभी। 
इस जीवन में माँ ने जो कुछ दिया 
वह दिया विन माँगें। 
वह ख़ुद बहुत पढ़ी-लिखी नहीं थी 
पर बना दिया मुझे एक क़ाबिल 
इंसान। 
एक अच्छे दोस्त की तरह 
व एक अच्छे शिक्षक की तरह 
मेरी देखभाल करती रही। 
मेरी हर सफलता के पीछे 
माँ का निश्चल प्यार ही है। 
मेरी हर ख़ुशी में 
वह अपनी ख़ुशी ढूँढ़ लेती, 
जब भी मुझे तकलीफ़ होती 
उन तकलीफ़ों से निकलने में 
वह मेरी शक्ति बन जाती। 
और बन जाती हर सफलता का आधार। 
मेरी सफलताओं का श्रेय 
वह मुझे हीं देती। 
आज भी वह शिक्षाप्रद कहानियाँ 
मुझे सुनाती। 
जीवन में कठिनाइयों से 
कैसे जूझा जाए 
इसका ज्ञान देती मुझे। 
ईश्वर से माँगूँ तो बस इतना 
बस यही बिनती है। 
मेरी माँ से मुझे कभी जुदा ना करना। 
जब भी नवजीवन दो तो बस उसी माँ की गोद दो। 
क्योंकि बिना उस माँ की गोद के 
ज़िंदगी रह जाएगी अधूरी। 
माँ होती सहनशीलता की मूरत 
सबसे प्यारी होती है 
उसकी सूरत। 

विजय कुमार सिन्हा - पटना (बिहार)

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