मुझमें जीने लगे हो तुम - कविता - रेणु अग्रवाल

मुझमें जीने लगे हो तुम
ऐसे कि जैसे मुंशी प्रेमचंद की
कहानियों में सुख-दुख को
आपस में बाँट
जीवंत हो उठते हैं पात्र।

मुझमें जीने लगे हो तुम
ऐसे कि जैसे पंत की रचनाओें में
प्रेम और सौंदर्य में नहाए
खिल उठते हैं बर्फ़ से ढँके पहाड़
कलकल करती नदियाँ
और हवा के संग सिर हिलाते
देवदार, चीड़ और
अंगार सरीखे दहकते बुरांस।

मुझमें जीने लगे हो तुम
ऐसे कि जैसे महादेवी की
कविताओं में विरह वेदना की
पीर छिपाए गतिमान
हो उठते है बिम्ब।

मुझमें जीने लगे हो तुम
ऐसे कि जैसे कोई किताब
आँखों के रास्ते होती हुई
पढ़ने वालों की रगों में
समा जाती है।

मुझमें जीने लगे हो तुम
ऐसे कि जैसे नट के
भीतर ज़िंदा रहता है
उसका अद्भुत कौशल।

मुझमें जीने लगे हो तुम
ऐसे कि जैसे किसी चित्रकार के
रंगों में समाकर कल्पना
उतरती है कैनवास पर।

मुझमें जीने लगे हो तुम
ऐसे कि जैसे किसी
संगीतकार की वीणा में
ज़िंदा रहते हैं तार
सप्तक के सात स्वर।

और कैसे बताऊँ कि
मुझमें किस तरह
जीने लगे हो तुम।

रेणु अग्रवाल - बरपाली, बरगढ़ (उड़ीसा)

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