झिलमिलाती ज़मीं - कविता - मेहा अनमोल दुबे

दूर कहीं आसमान में झिलमिलाती है, 
एक और ज़मीं 
एक और रात,
झिलमिलाती सी मेरी और देखती है, बिखरती सी...
मुझ तक आ पहुँचती है, 
फिर समझती हूँ और समझाती ख़ुद को मौन मैं।

क्यों ये झिलमिलाता दिख रहा कुछ धुँधला गया? 
क्या था ये?
जो ढलक गया,
  
लगा जैसे,
झिलमिलाती ज़मीन गिरी
पर, ये क्या?
ये तो वही है,
अभी भी उतनी ख़ूबसूरत है...
उतनी ही रोशन है,
ठीक तेरी बातों कि तरह,

ज़मीं को शायद आँख कि नमी ने कुछ नम कर दिया,
 
सुर्ख़ सा दिख रहा ये आसमान 
नीला, गहरा काला 
या
रोशन सा हो रहे ये 
अँधेरे को
जैसे थमने को कह रहा है
अब
सरकते -सरकते 
यहाँ आ पहुँचा 
शायद 
इसने भी मेरी तरह अतीत को समेट लिया।
 
ये तो और हुआ गहरा,
परछाई में लिपटने लगा
तो 
सुर्ख़ सा दिखने लगा
ये चेहरा गहराई मे जब सिमटा
तो हुआ 
और गहरा 
अब भी लग रहा है,
जैसे कोई
झाँकता है उस ज़मीं से
या 
आवाज़ लगाता है जोर से 
कौन है?
मेरा भ्रम!
या 
दूरियो का पहरा?
फीकी पड़ती, मुस्कुराहट रोज़ की है, 
ये कठनाई भी तो रोज़-रोज़ है
चलता नही कुछ भी यहाँ, 
बस रह जाता है वैसा ही,
न आस,
न उम्मीद, 
कठिनाइयों के हल निकालती रोज़ अकेली
और 
उलझती है
फिर सूलझती हुई
देखती हूँ इस ज़मीं से रोज़ उस ज़मीं को,
रोज़ हिचकिचाते हुए, हिचकियों के साथ,
कही कोई मेरा भी रस्ता देखता होगा अधुरे स्वप्न को पुरा करने के लिए।

मेहा अनमोल दुबे - उज्जैन (मध्यप्रदेश)

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