क़लम - कविता - संजय परगाँई

कभी अतीत की यादें,
तो कभी भविष्य की बातें,
कभी टूटे दिलों के हाल,
तो कभी मोह मायाजाल,
कभी अधूरी सी कहानी,
तो कभी अजीब सुनसानी,
कभी ज़माने की सच्चाई,
तो कभी दुनिया की अच्छाई,
कभी ख़ुद के दर्द और दुःख,
तो कभी ख़ुशियाँ और सुख,
क़लम क्यों लिखे जाती है ये सब,
मौन क्यों हो जाती है पूछता हूँ जब,
चल बता क्या लिखना इतना ज़रूरी है?
अगर नहीं तो बता ऐसी क्या मजबूरी है?
चल हटा तू कुछ भी बता नहीं पाएगी,
मुझे तू कुछ भी समझा नहीं पाएगी,
पता है मुझे चल अब मैं बताता हूँ,
तू खुलेआम लिखती है लेकिन मैं इतराता हूँ,
ये जो काया है इसके अंदर एक दिल समाया है,
उसे मैं बहुत कुछ बताता हूँ दिन रात समझाता हूँ,
वो कुछ सोच नहीं पाता दिन रात उसे समझाके मैं पछताता‌ हूँ।
ये जो मैं हूँ ना ख़ुद को किसी की भी जगह रख लेता हूँ,
वो जो विचार मुझमें आते हैं उन्हें इस दिल को बता देता हूँ,
फिर दिल ख़ुद में ही शोर करता है,
और उन्हें बाहर भेजने को जोर भरता है,
तभी क़लम उठ पाती है,
और शब्द अनसुने लिख जाती है,
ख़ैर तुझे कवि शायर तो कहता नहीं संजय,
बिना मेरे वजूद तेरा रहता नहीं।
क़लम मैं तेरा हूँ हर क़दम पर हूँ एहसानमंद,
बस चलती रहना यूँ ही किसी पल ना होना तू बंद‌।

संजय परगाँई - ओखलकांडा, नैनीताल (उत्तराखंड)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos