प्रेम - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

जिसमें प्रेम को
पहचाना है,
उसी ने 
सब कुछ पाया है।
जिसने स्वार्थ को
किया दर किनारा,
उसी ने प्रेम का
क़दम बढ़ाया है।
उसे तो बिना माँगे
स्नेह के मोती
मिल जाते,
जो सच्चे प्रेम
की आहें भर जाते।
मीरा ने
कुल का मग छोड़ा,
लोगो की काना फूसी,
अनसुनी कर
प्रेम का मग जोड़ा।
वृंदावन की
गलियों में,
उद्धव ने सखियों को
ज्ञान का बहुत पाठ पढ़ाया।
पर प्रेम सर्वोपरि है
यो कह सखियों ने,
उद्धव को लौटाया।
निस्वार्थ प्रेम,
भरत भ्रात
स्नेह का पाठ दोहराया।
लोगो के
अति कहने पर,
राज पाठ न भाया।
प्रेम में 
सरावोर हो
हीर राँझा,
ने जग में
नाम कमाया
निस्वार्थ प्रेम
ही तो है,
जो दो दिलो
को जोड़ता है।
जाति पाति का
न कर ख़्याल,
अपने स्नेह की
ओर मोड़ता है।
मित्र हो या 
हो जीवन साथी,
निस्वार्थ प्रेम की,
डगर को अपनाया।
उसने ही जग में
सच्चा सुख पाया।

रमेश चन्द्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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