इंतज़ार - कविता - मदन सिंह फनियाल

झुकी हर डाली फूलों से,
कर रही है माली से गुहार।
है बेसब्र हर फूल भी,
गुंथकर बनने को महकता हार॥

फिर गुनगुनाता हर भँवरा,
मँडराया वो भी बारम्बार।
निकले कब कली फूल बनकर,
कर रहा है यही इंतज़ार॥

सजी सुन्दरी गहनों से नित-दिन,
हो रही है वो बेक़रार।
नैन गड़ाए बैठी राह में,
कर-कर के सौ-सौ शृंगार॥

हो जाएगा मिलन आज तो,
यही सोचती है हर बार।
उदास हो गई शाम ढलने पर,
कर रही अगली सुबह का इंतज़ार॥

तिनका-तिनका सँजोए चिड़िया,
बने फिर उसका घर संसार।
दाना-दाना इक्कठा करके,
परोसे संग में ढेरों प्यार॥

हर दिन नया अरमान जगाए,
रखता है वो पंख पसार।
पहुँचेगा इक दिन फ़लक तक,
है पंछी भी उड़ने को तैयार॥

उमड़-घुमड़ कर बरसे अम्बर,
करने को धरती का दीदार।
पकड़ कर आँचल बदली का,
है नदिया भी उड़ने को तैयार॥

बड़े वक़्त के बाद ही आती,
है नई ऋतु और नई बहार।
करना होता यहाँ सभी को,
थोड़ा, अधिक या कुछ इंतज़ार॥

मदन सिंह फनियाल - चमोली (उत्तराखंड)

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