वसंत ऋतु - कविता - समीर उपाध्याय

आ गई है वसंत ऋतु ऋतुओं की रानी,
पिया मिलन की आशा मन में है जागी।
                   
मुस्कुरा उठी है अंतरात्मा की डाली,
लहलहा उठी है मन-प्राणों की क्यारी।

तुझ संग लगी प्रीत मोहन गिरधारी,
थाम ले मेरा हाथ अब तो साँवरे मुरारी।
                  
रंग दो अपनी प्रित में मैं हुई हूँ बौरानी,
तेरी बंसी की धुन पर मैं हुई हूँ दीवानी।

मोर-मुकुट पर मैं तो हो गई वारि‌-वारि,
दीवानी कर गई तेरे अधरों की लाली।
                
सुवासित सुमन की सेज है बिछाई,
तेरे मेरे मिलन की ऋत अब है आई।

सौंप दिया ये तन-मन तुझको बिहारी,
मेरा मुझमें कुछ नहीं है मुरली धारी।
               
समा जाऊँ तेरी बाहों में प्राण प्यारे कांजी,
दो तन एक प्राण हो जाए आज मेरे कांशी।

'कृष्णानंद' की ध्वनि पूरे ब्रह्मांड में छाई,
'राधानंद' की ध्वनि चहुँ दिशाओं से आई।
               
रूह से रूह मिलन की ऋतु आई।
रूह से रूह मिलन की ऋतु आई।
रूह से रूह मिलन की ऋतु आई।

समीर उपाध्याय - सुरेंद्रनगर (गुजरात)

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