मन के बाहर भीड़ बड़ी है,
सन्नाटा अंदर पसरा है।
मन भीतर का दीप बुझाकर,
क्यों मानव चुनता कचरा है?
दर-दर जाकर जिसको खोजे,
मन भीतर आन समाया है।
खोजा होता पल में मिलता,
कब मन का दीप जलाया है?
मन का मंदिर खाली कमरा,
बाहर क्या लेने जाता है?
चित सोया है तन जागा है,
यह कैसा इनका नाता है।
गंगा बहती भीतर तेरे,
नलकूप चलाने जाता है।
पुष्प खिले हैं आँगन तेरे,
क्यों कानन में फिर जाता है?
मैं, मेरा के चक्कर पड़कर,
क्यों हीरा जन्म गँवाता है।
क्या है जग में मेरा तेरा?
जो देता है वो दाता है।
ख़ुद को ढूँढ़े तो मैं जानू,
सुधि औरो की झट लाता है।
पाप बसा है मन के भीतर,
तू तन को धोते जाता है।
गणेश भारद्वाज - कठुआ (जम्मू व कश्मीर)