मुझे बहू ना मान लेना - कविता - समीर उपाध्याय

मैं बेटी हूँ...
बाबुल की छत्रछाया छोड़कर आई हूँ,
मां का आँचल छोड़कर आई हूँ,
भैया के हाथों की कलाई में प्यार की
निशानी छोड़कर आई हूँ,
मुझे बहू ना मान लेना।

चंचल मन की परी हूँ,
नए घर के अनुकूल होने में
और व्यक्तित्व को बदलने में
थोड़ा वक्त लग जाए तो
सब्र रखना,
मुझे बहू ना मान लेना।

बड़े नाज़ों से पली हूँ,
थोड़ी शरारती और चुलबुली हूँ,
बहू की ज़िम्मेदारियों को उठाने में
थोड़ा वक्त लग जाए तो
सब्र रखना,
मुझे बहू ना मान लेना।

अरमानों के पंख फैलाकर आई हूँ,
बड़ी शौक़ीन हूँ,
शौक़ को दबाने में
थोड़ा वक्त लग जाए तो
सब्र रखना,
मुझे बहू ना मान लेना।

पीहर की याद आने पर
आँखों में नमी आ जाएँ तो
मुझे कमज़ोर मत समझ लेना,
पीहर को भूलने में
थोड़ा वक्त लग जाए तो
सब्र रखना,
मुझे बहू ना मान लेना।

नए घर के 
रस्म-ओ-रिवाज को अपनाने में
थोड़ा वक्त लग जाए तो
सब्र रखना,
मुझे बहू ना मान लेना।

अनजाने में मुझसे ग़लती हो जाए तो
अकेले में बता देना।
कमज़ोरियों को ख़ूबियों में तब्दील करने में
थोड़ा वक्त लग जाएँ तो
सब्र रखना,
मुझे बहू ना मान लेना।

मैं बेटी हूँ,
मुझे बहू ना मान लेना।
मुझे बेटी समझकर अपना लेना।
अक्सर बेटी की कमियों को देखा नहीं जाता,
कमियों के साथ मेरा भी स्वीकार कर लेना।
घर को
स्वर्ग बनाकर ना दिखाऊँ तो कहना,
परिवार को 
एक सूत्र में बाँधकर ना दिखाऊँ तो कहना,
कुल का
गौरव बढ़ाकर ना दिखाऊँ तो कहना।

समीर उपाध्याय - सुरेंद्रनगर (गुजरात)

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