ऐ धैर्य! - कविता - सिद्धार्थ गोरखपुरी

बताओ न? कि तुमने
क्या-क्या मुझपे आजमाया है,
हवा के रू-ब-रू तुमने
मुझे जलना सिखाया है।

थोड़ा सा ख़ुद के लिए 
जब भी मैंने ख़ुद को रोका है,
तुम सबसे कहते हो
कि वो हो गया पराया है,
हवा के रू-ब-रू तुमने
मुझे जलना सिखाया है।

तुम्ही से ज़िंदगी की डोर
अक्सर बँध के रहती है,
तुम्हारे मुताबिक़ रहने को
अक्सर सध के रहती है,
तुम न हो तो आदमी ने
क्या खोया पाया है,
हवा के रू-ब-रू तुमने
मुझे जलना सिखाया है।

वक़्त हक में ना हो तो
उम्मीदें टूट जाती हैं,
सँजोए दिल की ख़ुशियों को
रह-रहकर लूट जाती है,
तुमने ही तो समय के माफ़िक़
ढलना सिखाया है,
हवा के रू-ब-रू तुमने
मुझे जलना सिखाया है।

सिद्धार्थ गोरखपुरी - गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)

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