बताओ न? कि तुमने
क्या-क्या मुझपे आजमाया है,
हवा के रू-ब-रू तुमने
मुझे जलना सिखाया है।
थोड़ा सा ख़ुद के लिए
जब भी मैंने ख़ुद को रोका है,
तुम सबसे कहते हो
कि वो हो गया पराया है,
हवा के रू-ब-रू तुमने
मुझे जलना सिखाया है।
तुम्ही से ज़िंदगी की डोर
अक्सर बँध के रहती है,
तुम्हारे मुताबिक़ रहने को
अक्सर सध के रहती है,
तुम न हो तो आदमी ने
क्या खोया पाया है,
हवा के रू-ब-रू तुमने
मुझे जलना सिखाया है।
वक़्त हक में ना हो तो
उम्मीदें टूट जाती हैं,
सँजोए दिल की ख़ुशियों को
रह-रहकर लूट जाती है,
तुमने ही तो समय के माफ़िक़
ढलना सिखाया है,
हवा के रू-ब-रू तुमने
मुझे जलना सिखाया है।
सिद्धार्थ गोरखपुरी - गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)