ये मिठाइयाँ - कविता - सुषमा दीक्षित शुक्ला

कितनी प्यारी ये मिठाइयाँ,
जैसे यौवन की अँगड़ाइयाँ।
जैसे बचपन के सहेलियाँ,
जैसे नानी की पहेलियाँ।
अति सेवन से होती दुश्वारियाँ,
ज़्यादा खाओ तो बने बीमारियाँ।
ये तो देती हैं सुंदर सीख,
किसी चीज़ की अति ना ठीक।
हाय ये निगोड़ी जलेबियाँ,
ये कितनी अलबेलियाँ।
ये सुनाती अपनी कहानी,
रंग रूप नहीं मायने रखता,
जीवन रसमय मीठी बानी।
देखने मे ये कितनी टेढ़ी-मेढ़ी,
देख लो तो मुँह में आए पानी।
हाय ये मुये लड्डू बेसन के,
कोई नहीं बचा बिना सेवन के।
बिखर कर फिर बंध जाते हैं,
पुनर्निर्माण की बात समझाते हैं।
ये बूंदी के लड्डू देखो,
छोटे-छोटे आकारों से,
बिल्कुल एक बने हैं।
अनेकता में एकता का,
यारों ये सन्देश बने है।
रसगुल्ले हैं सबसे न्यारे,
रसवाले हैं सबसे प्यारे,
कितना निचोड़ो फिर भी न हारे।
बदले ना इनका रंग रूप,
जीवन का हो यही स्वरूप।
इतने सस्ते मत बनना,
कहती ये काजू कतली,
सबके मन में बसते रहना,
जैसे सोना हो असली।
कितनी प्यारी ये मिठाइयाँ,
जैसे यौवन की अँगड़ाइयाँ।

सुषमा दीक्षित शुक्ला - राजाजीपुरम, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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