नशा - कविता - कवि दीपक झा 'राज'

उठ रहा धुँआ
जल रहा परिवार,
लेकिन मौन बैठकर
देख रहा संसार।
क्यों जानकर हम
बन जाते अनजान,
गुटका, खैनी, मदिरा
का करते हैं पान।

भटके को राह दिखाना है
मृत्यु से लड़ जाना है,
ज़रूरत है प्यार की,
आस की, प्रकाश की,
एक नए मार्ग की,
थोड़े से प्रयास की।

कवि दीपक झा 'राज' - बेगूसराय (बिहार)

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