आहत संवेदना - कविता - गोपाल मोहन मिश्र

घड़ी साँझ की सन्निकट है खड़ी,
लग रहा यूँ हर चीज़ यहाँ बिखरी है पड़ी,
अपना हम जिसे अबतक कहते रहे,
दूर हाथों से अब अपनी ही वो परछाँई हुई।

विरक्त सा अब हो चला है मन,
पराया सा लग रहा अब अपना ही ये तन,
बुझ चुकी वो प्यास जो थी कभी जगी,
अपूरित सी कुछ आस मन में ही रही दबी।

थक चुकी हैं साँसें, आँखें हैं भरी,
धूमिल सी हो चली हैं यादों की वो गली,
राहें वो हमें मुड़कर पुकारती नहीं,
गुमनामियों में ही कहीं पहचान है खोई हुई।

संवेदनाएँ मन की तड़पती ही रही,
मनोभाव हृदय के मेरे, पढ़ न सका कोई,
सिसकता रहा रूह ताउम्र यूँ ही,
हृदय की दीवारों से अब गूँज सी है उठ रही।

बहुत दिन बीत चुका भले ही वक्त अब वो,
पर टीस उसकी, आज भी डंक सी चुभ रही,
अब ढ़ह चुके हैं जब सारे संबल,
काश! ये व्यथा हमें अब वापस पुकारती ही नहीं!

शिकायतें ये मेरी आधार विहीन नहीं,
सच तो है कि साँझ की ये घड़ी भी हमें लुभाती नहीं,
अगर संवेदनाएँ मेरी भावों को मिल जाती,
तब ये साँझ की घड़ी भी हमें कुछ ताक़त दे जाती!

गोपाल मोहन मिश्र - लहेरिया सराय, दरभंगा (बिहार)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos