हृदय - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

हृदय की
अनुभूति से,
होते है
कई शिष्टाचार।
हृदय में जब
कोई खटक जाए,
होती है
बाते आर पार।
क्रोधित हो
ऋषि भृगु ने,
लक्ष्मी पति में
मारी लात।
हृदय ही तो है
जो सहता
कई घात अघात।
जग में जब
कोई करता है,
अच्छे काम।
सीना उसका
छप्पन इंच का
और होता है ये नाम।
जब हृदय 
परिवर्तन होता,
तो मानव छोड़
देता है अनाचार।
हृदय की
अनुभूति से,
ही होते है
कई शिष्टाचार।
हृदय रोगी
हमेशा रहते है,
सावधान।
स्निग्घता को
त्यागकर,
सीमित रखते
अपना खान-पान।
जब दो वक्षस्थल का
होता है मिलन,
तो दुनिया
सिमट जाती
है उनके प्यार में।
जब राम ने
भरत को,
लगाया अपनी 
छाती से,
दोनो भाई ढुबे
अश्रु की धार में।
विगल हुए
कई वर्षो से,
दो युगल प्रेमी
मिलने पर
करते है,
कभी न बिछड़ने
का इज़हार।
बच्चो को
लगा अपने
हिय से,
माँ होती है
अति विभोर।
अपनी छाती से,
पिला दूध
माँ बच्चो को,
बड़ा देख
होती है निढाल।
चाहे अच्छा
हो या हो बुरा,
माँ को लगता है
अपना प्यारा लाल।
कोऊ की
नज़र न
लग जाए,
मेरे लाल को
हिय पे
काला लगा ठठुला।
माँ को होता है
जब संतोष,
तब तक बेटा
नहीं बन जाता दूल्हा।
हृदय ही
तो है जो
दिलो के,
आपस में
करवाता है प्यार।
हृदय की
अनुभूति से,
होते है
कई शिष्टाचार।

रमेश चन्द्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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