शब्द चरित - कविता - गणेश भारद्वाज

शब्द कलेवर बन जाते हैं
सब मुखरित होते भावों के,
अंतर्मन की लहरों में फिर
बनते हैं वाहक ख़्वाबों के।

मनभावन, सुखदाई, कड़वे
शब्दों के तो मेल बड़े हैं,
संचालन पर करते निर्भर
इनके वश में खेल बड़े हैं।

रिश्ते कड़वे-मीठे बनते
बाणी से बोले बोलों से,
शीतलता भी देते मन को
कभी देह जलाते शोलों से।

संतों का यह आश्रय पाकर
दानव से मानव घड़ते हैं,
बन जाते हैं मार्गदर्शक
जब कवि के हत्थे चढ़ते हैं।

छत्र-छाया पा नेताओं की
चढ़ मंचों पर जन छलते हैं,
जात धर्म की आग लगाकर
फिर कितने ही घर जलते हैं।

अधिकारी की भाषा बनकर
जन-जन पे रौब जमाते हैं,
गाली बनकर थानों की यह
पहचान अलग ही पाते हैं।

ममता की छाया में आकर
यह प्रेम असीम लुटाते हैं,
प्रेम वचन बन अध्यापक के
धरती को स्वर्ग बनाते हैं।

जड़ को भी यह चेतन कर दें
जब राह सही अपनाते हैं,
तलवार कुंठित हो जाती है
जब अपनी धार चलाते हैं।

बरतें इनको सोच समझ कर
इनका कुछ भी दोष नहीं है,
जैसे ढालो ढल जाते हैं
इनको कुछ भी होश नहीं है।

गणेश भारद्वाज - कठुआ (जम्मू व कश्मीर)

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