पूष की प्रातः आभा को,
ढक दी श्यामल मेघ की चादर।
खेल रहे रजनी संग जैसे,
आँख मिचोली खेल प्रभाकर।
संध्या की सारी को पहने,
डाले भोर भरम में पल भर।
झाँका झरोखे के कपाट से,
लिहाफ़ का एक छोर हटाकर।
अलसाई अधखुले से नैना,
दीवार घड़ी पर पड़ी जो जाकर।
हुआ प्रतीत बरबस कोई,
अलाव शीत का गया बुझाकर।
आनंद वाटिका के सुख को,
जैसे रौंद गया हो पतझड़ आकर।
लिया छीन उर के आनंद को,
घड़ी की सुइयाँ समय बताकर।
स्मरण हुआ अवकाश नही है,
आज के दिन तो खुला है दफ़्तर।
निज मन मार स्वयं ही अब,
त्यागना होगा उष्म सुखद बिस्तर।
छुट्टी नही है लेना संभव,
कह मिथ्या या स्वांग दिखाकर।
हूँ बाध्य कर्त्तव्य से अपने,
मैं जन-सेवक सरकारी चाकर।
सुख की शैय्या छोड़ उठा,
मन ही मन थोड़ा पछताकर।
होगा निकलना मुझे काम पर,
भले न निकले आज दिवाकर।
अनूप मिश्रा 'अनुभव' - उत्तम नगर (नई दिल्ली)