नाक - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

नाक छोटी होना
नाक बड़ी होना
नाक ऊँची होना
नाक नीची होना
नाक बचाने के
चक्कर में क्या क्या खेल खिलाए।
नाक ही तो है
जो बात बात में टाँग अड़ाए।
इज़्ज़त बच गई
तो समझो नाक रह गई।
इज़्ज़त धूल में
मिली तो
समझो नाक कट गई।
नाक के कारण ही,
रामायण आगे
बढ़ पाई है
वेमर्यादा हुई 
सूर्पणखा को
राम सहोदर ने की
धारासाई है।
बची रहे ये नाक
इस ख़ातिर,
सौ कौरव वंश का
हो गया बँटाधार।
नाक के चक्कर में 
दुनिया भर को,
सोचना पड़ता है
सौ-सौ बार, 
नाक के चक्कर में ही
राजे महाराजे 
करते है आपस में तकरार।
अगर नाक का
किया न ख़याल,
तो इज़्ज़त होती है तार-तार।
नथ पहने
नाक में युवती
की सुंदरता में चार 
चाँद लगाए।
नाक कवि की
कल्पना में,
सुंदरता का
लेती है अति सुंदर रूप।
अगर नाक न हो
तो यह सुंदर शरीर
है अति कुरूप।
नाक से ही
सुगंध और दुर्गंध में
खिंचती रेखा।
नाक ही 
किसी वस्तु के,
गुणों का 
करती है अभिलेखा।
माँ पकड़ती 
नाक स्नेह से,
बालक को सहलाए
नाक ही है 
जो ग़लत कामों में
टाँग अड़ाए।

रमेश चन्द्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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