पितृसत्तात्मक समाज और स्त्री जीवन - कविता - नीलम गुप्ता

एक स्त्री की ज़िंदगी को, क्या बनाकर रख दिया है?
इन पितृसत्तात्मक समाज के लोगों ने।
पीहर में पली बढ़ी तो गुड़िया देकर उसे,
उसके अस्तित्व का एहसास कराया गया।
बड़ी हुई तो बेटे के तुल्य न समझकर,
लोक-लज्जा के आवरण से; ज़बरदस्ती ढका गया।
पूरा प्यार बेटों पर लुटाया गया, जबकि बेटियों को 
इसके लिए तरसाया गया।
बेटा पढ़ेगा तो घर का मान बढ़ेगा
जबकि बेटियों से ज़बरदस्ती, चूल्हा-बर्तन कराया गया।
बेटे को शिक्षित कर समाज में, उसके स्वाभिमान को बढ़ाया गया,
तो बेटियों को बेरोज़गार कर समाज में
उसके स्वाभिमान को कुचला गया।
बेटा कुल का दीपक होता है और बेटियाँ पराई धन,
यह कहानी न जाने कितनी बार उसे सुनाया गया।
बेटों की शादी में खुलेआम दहेज की माँग
तो बेटियों की शादी में, ज़्यादा दहेज देने से कतराया गया।
जब बेटी ब्याह कर श्वसुराल आती है तो
उसे सेवा का झाँसा देकर, घर की नौकरानी समझा जाता है।
उसको कभी सास की कभी नंद तो
कभी पति की घुड़कियाँ सहनी पड़ती है 
लेकिन अपने से बड़ों का, सवाल जवाब नहीं करनी चाहिए
यह सीखा सीखा कर उसके मुँह पर,
ज़बरदस्ती चुप्पी का ताला लगाया जाता है।
पति परमेश्वर होता है यह बात उसे,
बचपन से ही तोते की तरह रटाया जाता है।
अन्ततः उसे अबला बनाकर उस पर,
करुणा दिखाने का ढोंग रचा जाता है।
फलस्वरूप वह पति की मार और 
गाली-गलौज खाने की आदी भी बन जाती।
आख़िर उसके साथ इतना बड़ा अन्याय क्यूँ किया जाता है?
क्या वह इन्सान नहीं? या फिर खुली हवा में
साँस लेने का उसका हक़ नहीं?
आख़िर इतना बड़ा अन्याय, किसने और क्यूँ किया?
प्रकृति ने तो सबको बराबरी से जीवन 
जीने का हक़ अदा किया था 
लेकिन अब समझ में आया कि ये पक्षपात,
किसने और क्यूँ किया?
ये सब पुरुष सत्ता का बनाया हुआ खेल है।
इसने चारो तरफ स्वयं की स्थापना हेतु 
स्त्री जाति को आगे बढ़ने नहीं दिया।
आख़िर ऐसा क्यूँ किया गया? उसे भी तो इस दुनिया में, कुछ कर गुज़रने की तमन्ना रही होगी?
लेकिन बेरहम पितृसत्तात्मक समाज ने
जीवित रहते हुए भी उसे निर्जीव पुतला बना दिया।

नीलम गुप्ता - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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