हिंसा: एक जघन्य अपराध - मदिरा सवैया छंद - पवन कुमार मीना 'मारुत'

हिंसा: एक जघन्य अपराध - मदिरा सवैया छंद - पवन कुमार मीना 'मारुत' | Madira Savaiya Chhand - Hinsa Ek Jaghany Apraadh - Pawan Kumar Meena
आदिम मानव जंगल में रहता, कम थी मति मानुष में।
चर्म चबाकर भूख मिटाकर, नग्न व धावत था वन में।
बेबस था मजबूर परन्तु, अभी प्रज्ञ पण्डित है जग में।
होकर पण्डित पागल पंकिल, हिंसक कातिल जीवन में॥ 1

लाकर के बकरे पर तू, तलवार चलाय अचानक ही।
घातक दारुण दानव निर्दय या अति पातक मानव ही?
रक्त बहाकर भू पर पामर, चीख पड़ा जब ज़ालिम ही।
खाकर माँस हुआ खुश लेकिन, बर्बर आदत आदिम ही॥ 2

गाजर पालक के सम जीवन, को तुम काटत लाज नहीं।
कातिल तू बसता अब भू-पर, हाँ! यह सभ्य समाज नहीं।
जीव सभी सम नाय विभेद, विभाजन मानुष काज नहीं।
जीवन पोषण है सुख सागर, जीव दया सम राज़ नहीं॥ 3

हिंसक तू बन मारत जीव, बड़ा यह क़ाबिल काम नहीं।
काटत हाड़ व माँस पकाय, वहाँ शुभ शीतल धाम नहीं।
लालच में रसना रस चाहत, मानवता पर ध्यान नहीं।
मानुष की मति मारि गई पर, जीव दया बिन मान नहीं॥ 4

युग्मक का नर भोजन में, ख़ुश होकर भोग लगाए जहाँ।
मानत सात्विक कुक्कुट गर्भ कु, चाव सु खावत नित्य अहा!
प्राण बसे इस युग्मक अन्दर, अन्धन को यह दीखत कहाँ?
लालच ख़ातिर त्राण न दो तुम, जीवन नाशन पाप महा॥ 5

खाकर पिण्ड घमण्ड किया, न महान न इज़्ज़त कारक है।
मूरख मानुष मान घटाय, नहीं शुचि शब्द, न धारक है।
मानव जिस्म कलंकित होय, न कालिख छूटत पावत है।
कर्म सदा दुख देत विचार, करो नित गौतम गावत है॥ 6

संग मिला रज-विन्द बराबर, निर्मित जीव हुआ तब है।
देह बनी मुरगी तन भीतर, वंश बढ़ावत वे सब है।
लोभ महा रस चाहत युग्मक, दारुण दानवता तब है। 
गर्भ पकाकर खावत हो तुम, जीवित मानवता कब है? 7

होटल जाकर माँगत जो, मछली-मुरगी-बकरा तुम हो।
जीव अभक्ष्य अखाद्य सदा, बदनाम गँवार कलंकित हो।
सभ्य नहीं यह आदत मानव, जान जुदा करते नित हो।
चित्त नहीं करुणा, रमणीक न जी, गुण नाशक दानव हो॥ 8

आमिषखोर कहे कब क़त्ल, किया हमने इन जीवन का।
क़ातिल क़त्ल करे कर से, हम खावत भोजन आमिष का।
ग्राहक तू बनता इस कारण, लोभ बड़े नित जालिम का।
आमिष चाहत ना रखते तुम, प्राण न जावत प्राणिन का॥ 9

जीभ नहीं रखते वश में तुम, स्वाद चखो हर आमिष का।
सूअर स्वान अजा अरु गाय, गधा तुम खावत कानन का।
मूरख मानव मारत क्यों? अपराध नहीं इन जीवन का।
क्यों पशुता अपनाय मनुष्य? बने मत नाशक प्राणिन का॥ 10

लालच कारण धार्मिक वंचक, वंचित की मति भ्रष्ट करे।
मूर्ति न खावत आमिष देवल, देवन को बदनाम करे।
बातन में बहकाकर, बातुल लोगन को करता, न डरे।
दुर्जन निर्मम निर्धन लूटत, मानस से बलहीन करे॥ 11

मूरत माँस न खावत, भक्षक है कपटी नर जीवन का।
है छलते छलिया नित पामर, वेश बनाकर भक्तन का।
स्वारथ साधत है बस ये, न विवेक करे कटु कर्मन का।
दारुण दानव दीखत सूरत, जाहिर जालिम जन्मन का॥ 12

लानत है उन लोगन को, करते कर क़त्ल सजीवन का।
लाभ कमा धनवान धनी, धन छीनत हो नर गोधन का।
त्राण सदा सुन देकर बेबस को, मत शाप सहे इनका।
प्राण हरे हर हिंसक हाय!, न मानस ताप घटे मन का॥ 13

बुद्धि बिना बदकाज करे, बदनाम बुरे बदमाश सभी।
मानवता मत मार, नहीं कर हिंसक होकर हानि कभी।
हानि अधीन हुए हर हाथ, हलाल हया तजते नर भी।
आज अभी बदकाज तजो तुम, मानत मारुत बात सभी॥ 14

दारुण दानव तू बनता नर, जीवन जान जुदा करता।
पत्थर-सा मन को करके पशु, नाय दया दिल में धरता।
बेपरवाह बना बदमाश, मलाल नहीं नर तू करता।
लेकर ख़ंजर ख़ून किया, कर काटत कान क़जा करता॥ 15

जीव विनाश विचार विहान, विभक्त विदेह कलेवर है।
काम करो मत मारन का पशु, छूटत रक्त सरोवर है।
अन्धन को कुछ काम नहीं, बस बेबस मारत वे नर है।
जीवन जारत जाय जहन्नुम, ज़ालिम जाहिल तू नर है॥ 16

क़ातिल क़त्ल करे सुत सम्मुख, निर्मम निर्दय नीच बना।
बाल बनाकर बेहद हिंसक, ज़ालिम जीव जहान जना।
बाल बने पशु के सम क्रूर, अभी करते अतिचार घना।
कायर क्यों करता कर लाल? लहू पशु पीवत पाप घना॥ 17

खावत माँस महा मतिमन्द, बुरे बकते अपशब्द सदा।
बालक संगति से सब सीखत, फूहड़ बात विचार सदा।
मान घटा घर में सबका, सुख गाल-गलौंज़ गँवाय सदा।
गेह मसान बना बसते बहु, दानव दीखत देख सदा॥ 18

यौवन यार कुकृत्य करे, करके कल क्यों इतरान लगा।
बेबस बालक क़त्ल किया पशु, काटत हर्षित होन लगा।
भक्षण भी करता बदमाश, वही करने अतिचार लगा।
ख़ून बहाकर बातुल बालिश, मानुस मानस दुष्ट जगा॥ 19

आर्त्त अजा असहाय अमानव, जीवन को मत मार कभी।
बोलत ना अतिचार अमावस, जुल्म जहाँ पशु पाय सभी।
साहिब सालत बेरहमी बक-मानव की पशु संग सभी।
“मारुत” बात विचार करो मन, मानवता अपनाय सभी॥ 20


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