हे मानव! जागो - कविता - मुकेश साहू

उषा के किरण का पृथ्वी पर पड़ते ही
छोटे-छोटे चिड़ियों का चहचहाना
मानों कह रही हो, "भोर हो गई"।
हे मानव! जागो, अपना कर्म करो,
सभी अपने कर्म क्षेत्र पर लौट चुके हैं,
जल, थल, नभ प्रकाशवान हो चुके हैं।
बिखरे हैं चारों दिशाओं में ओस की बूँद 
चमक रही हैं मोतियों की तरह।
सूरज के आते ही, चंद्रमा–
छुप चुका हैं कहीं आसमान में,
मानो पाली बदल रहे हो।
चार प्रहर की घोर शांति के बाद
सूरज के आते ही समस्त जगत में
छा जाती हैं एक नई ऊर्जा, 
साथ ही चारों दिशाओं में कौतूहल हैं।
हम भी उड़ चुके हैं नील गगन में
एक नई जगह की तलाश में,
हमें रुकना नहीं हैं, आगे बढ़ना हैं, 
जब तक मंज़िल ना मिले।
मोह रही हैं प्रकृति मन को, पर
जो सो रहे हैं, वो खो रहे हैं इस पल को,
हे मानव! जागो, लौट चलो,
कर्म क्षेत्र तुम्हें पुकार रही हैं।

मुकेश साहू - राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)

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