दाएँ-बाएँ, पीछे-आगे,
स्वार्थ हित सब भागे-भागे।
इस दुनियाँ में चलते-फिरते,
आते-जाते हमसे मिलते।
अपने हित में पाले ढब हैं,
सच पूछो तो सारे शव हैं।
निज भाषा का मान नहीं है,
राष्ट्र निज की आन नहीं हैं।
रिश्तों में अब प्राण नहीं हैं,
काया में भी जान नहीं है।
बोलो वे सब जीवित कब हैं?
कंपन करते सारे शव हैं।
कोई धन पा फूल रहा है,
मानव मूल्य भूल रहा है।
कोई चक्की पीस रहा है,
मन में उसके टीस रहा है।
अपने मन की करते सब हैं,
मानवता बिन सारे शव हैं।
अपनी-अपनी दुनियाँ सबकी,
छोड़ धरा वे सोचें नभ की।
परहित कार्य छोड़ चुके हैं,
बंधन सारे तोड़ चुके हैं।
चाल-चलन से बनते रब हैं,
मेरे मत में जीवित शव हैं।
गणेश भारद्वाज - कठुआ (जम्मू व कश्मीर)