चाह - कविता - तेज देवांगन

हम जीत की चाह लिए,
गिरते, उठते पनाह लिए,
निकल पड़े है, जीत की राह में,
चाहे कंटक, सूल, ख़ार हो,
आए संकट विकार हो,
निकल पड़े हम जीत की राह में।
आए अगर वृहत महीधर,
तोड़ देंगे उसकी धड़,
बाँट देंगे उसको हम कण-कण,
साँस गर रुक जाए,
बाहुबल झुक जाए,
झुकेंगे नहीं, हम आख़िरी दम तक,
चाहे शैल की चिंगारी हो,
इंद्र जैसे कटारी हो,
रुकेंगे नही हम आख़िरी दम तक।।

तेज देवांगन - महासमुन्द (छत्तीसगढ़)

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