हर सपने पूरे होंगे अब - कविता - गौरव दात्रया

पल भर के लिए मूँदी आँखे, 
एक ख़्वाब ज़हन में डोल गया,
एक ख़्वाब में थे ख़्वाब हज़ार,
हर ख़्वाब अधूरा रह गया।

सौ दफ़े हारा हूँ,
सौ दफ़े मैं टूट गया,
क़ाबिल ने फटकारा मुझको, 
नाक़ाबिल भी कुछ कह गया।

जज़्बातों का सैलाब था,
पल भर में जो बह गया,
उम्मीदों से किसे देखूँ मैं,
वहाँ शांत खड़ा बस रह गया।

अब किसे मैं अपना कह दूँ,
कौन यहाँ पराया है,
जो साथ खड़ा है वो अपना,
जो निकल गया पराया है।

ये सीख मैंने सीख ली,
फिर हर दर्द मैं सह गया।

फिर मिला कोई अनजान सा,
मैं बन गया दीवाना सा,
जब नज़रों का हाँ खेल हुआ,
मैं इश्क़ में उसके बह गया।

हर पल साथ रहकर उसके,
ज़िंदगी जीना सीख गया,
हताश सा रहने वाला मैं,
ख़ुशियों से था भर गया।

ख़ूबसूरत हैं दुनिया दिखाकर,
साथ मेरा वो छोड़ गया,
किसी और को ख़ुश करने में,
दिल मेरा वो तोड़ गया।

पराया कुछ कर पाता नहीं,
पराया अपना बन कर छल गया,
ख़ुद को अब संभालूँ कैसे,
भीतर तक मैं जल गया।

अब नींद नहीं है सोने को,
जज़्बात नहीं है रोने को,
टूट गया मैं बिखर हुआ,
ख़ुद के अंदर मैं सिमट गया।

एकदम से जब आँख खुली,
पसीने से लथपथ, कण्ठ मेरा था सुख गया,
काश ये होता सपना,
हक़ीक़त थी, मैं डर गया।

पल भर की इस झपकी में,
मैं जीवन भर का सो लिया,
फिर जो मर्द अकेले में करता है,
मैं उन आँसुओ से रो दिया।

आँधी को अब आने दो,
तूफ़ानो से टकराने दो,
मैं खड़ा हूँ विजय स्तंभ सा,
मेरी पीठ मुझे थपथपाने दो।

पल भर के लिए मूँदी आँखे,
एक ख़्वाब ज़हन में डोल गया,
हर सपने पूरे होंगे अब,
झूमता हुआ मैं बोल गया।

गौरव दात्रया - अलवर (राजस्थान)

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