अर्थ दे दो ना - कविता - शुचि गुप्ता

दिग्भ्रमित से भाव मेरे शब्द दे दो ना,
व्यर्थ जीवन पटकथा को अर्थ दे दो ना।

दृग तुम्हें ही ढूँढ़ते हैं सब दिशाओं में,
दो नयन को देव अपने स्वप्न दे दो ना।

सुन पुकारे ये गगन भी आ मुझे छू ले,
इक नई सी कल्पना को पंख दे दो ना।

थक रहे पग भटकते इन वीथियों में अब,
नेह की बूँदों भरा स्पर्श दे दो ना।

अधखिले से ही रहे हैं पुष्प इस मन के,
मीत अपनी प्रीत का उल्लास दे दो ना।

हो रहे निस्पंद मेरे प्राण अंतस में,
रख परस्पर प्रिय अधर को श्वांस दे दो ना।

क्यों अपरिचित सा रहा संबंध ये अपना,             
प्रेम शुचि को इक मधुर सा नाम दे दो ना।

शुचि गुप्ता - कानपुर (उत्तरप्रदेश)

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