गीता का ज्ञान - कविता - डॉ॰ गीता नारायण

कृष्ण ने कहा अर्जुन से;
सुनो गुड़ाकेश! मैं ऋषिकेश...
तुम्हें देता हूँ वह ज्ञान विशेष...
जिसे तुम्हारे अलावा आज कोई नहीं सुन पाएगा,
जिसे तुम्हारे अलावा आज कोई नहीं जान पाएगा,
पर युग-युगों तक जो मानवता को देता रहेगा संदेश।
मैं ऋषिकेश... 
तुम्हें देता हूँ वह ज्ञान विशेष।

हे पार्थ !
मैं अपना नारायणत्व छोड़कर तुम्हारा सारथी बन गया,
और तुम अपना गांडीव छोड़कर परम स्वार्थी बन गए...?
हाँ पार्थ,
यह है स्वार्थ! 
दुर्योधन कहता है युद्ध करो ममार्थ,
तुम भी तो वही कहते हो... युद्ध त्यागो ममार्थ,
कुछ भी करना केवल स्वयं हितार्थ
कहलाता है स्वार्थ।
हाँ पार्थ।

मैं रणछोड़ कृष्ण आज रण में खड़ा हूँ,
कुछ तो होगी बात जो रण पे अड़ा हूँ।
चाहूँ तो निमिष मात्र में कर दूँ दुराचारियों का नाश,
पर सोचो तो मानवता का तब कैसा लिखा जाएगा इतिहास!
पिता, पुत्र,भाई और प्रीतम होगा सब संबंधों का ह्रास।

अपने हर अवतार काल में मैंने ही शस्त्र उठाए हैं,
हर युग में जाने कितने असुरों के शीश काट गिराए हैं।
पर अब अपने मानव को मैं देता हूँ यह अधिकार कि 
जननी और जन्मभूमि पर यदि कोई करे प्रहार
चूको मत, करो वार 
रह निर्विकार!
तभी तो मानव का मानवता पर बना रहेगा विश्वास।

इसलिए हे गुड़ाकेश! मैं ऋषिकेश...
तुम्हें देता हूँ गीता का यह ज्ञान विशेष।

डॉ॰ गीता नारायण - गुरुग्राम (हरियाणा)

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