ग़रीबों को हमेशा ही अंधेरों में सुलाते हो - ग़ज़ल - अरशद रसूल

अरकान : मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
तक़ती : 1222 1222 1222 1222

ग़रीबों को हमेशा ही अंधेरों में सुलाते हो,
उन्हीं के ख़ून से घर में दिये अपने सजाते हो।

लड़ाई का दिखावा तुम हमेशा ख़ूब करते हो,
फ़सल बारूद की आपस में सब मिलकर उगाते हो।

ग़रीबों को मयस्सर है नहीं दो जून की रोटी,
मसालेदार काजू साथ में दारू उड़ाते हो।

तरक़्क़ी कर नहीं पाए अभी तक पाँच बरसों में,
चुनावों में हथेली पर तुम्हीं सरसों उगाते हो।

वतन की राह में कोई फ़रेबी आ नहीं सकता,
हमें क्यों मज़हबों की बेवजह घुट्टी पिलाते हो।

हुआ था खेल छुड़वाने पकड़वाने का जनता को,
रहम को भूलकर मज़लूम से दौलत कमाते हो।

अरशद रसूल - बदायूं (उत्तर प्रदेश)

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