सन्नाटे का शोर - कविता - रतन कुमार अगरवाला

मध्यम हो रहा शाम को सूरज,
पसर रहा अंधियारा सनैः सनैः,
हो रही एक अजीब सी शांति,
जंगल चारो ओर घने-घने।

पेड़ करे गूँज सायं सायं,
सन्नाटे ने पसारे पाँव,
न था कहीं एक पथिक,
न कोई शहर, न कोई गाँव।

न कहीं पंछी का कलरव,
न कहीं प्रकाश किसी ओर।
था एक भय का आलम,
और एक अजीब सा शोर।

सुनने की कोशिश की मैंने,
न थी कोई आवाज़।
जाने कैसा था वह शोर,
नहीं लगा मुझे अंदाज़।

चलता रहा मैं चौकन्ना सा,
देखते-देखते चारो ओर,
तभी महसूस हुआ मुझे,
था यही सन्नाटे का शोर।

सन्नाटा कह रहा हौले से,
बस रात की ही तो बात है।
अंधियारे के बाद उजाला,
यही प्रकृति की रीत है।

इससे मिला मुझे यही संदेश,
डरूँ नही अंधियारों से।
दिन रात तो समय चक्र है,
आते जाते चौबारों से।

दुःख सुख तो आवे जावे,
ज़िंदगी का यही है नियम।
समय सदा एक न रहता,
रखूँ जीवन में सदा संयम।

न हो अगर जग में अंधियारा,
कैसे पाऊँगा प्रकाश का छोर?
अगर न हो जीवन में दुःख,
कैसे मिलेगी सुख की डोर?

अंधियारा प्रकाश दोनो है साथी,
जैसे दुःख और सुख का साथ।
कर्तव्य पथ पर सदा चलूँ
जो भी लगे मेरे हाथ।

ज़िंदगी की कठिन राह पर,
सन्नाटा हमे यही सिखाता,
भय तो हमारे मन में हैं,
भय का भाव हमें डराता।

रतन कुमार अगरवाला - गुवाहाटी (असम)

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