समय सिंह जौल - दिल्ली
मजबूरी - कविता - समय सिंह जौल
शनिवार, सितंबर 18, 2021
अपने हाथ में डंडी लिए
चुंबक उसमें बाँध लिए
ढूँढ़ रहा कूड़े में
टुकड़े लोहे के
जैसे मछुआरा जाल बिछाकर
पानी में छोड़ता जाल बनाकर
फँस जाए मछली
जीविका के लिए।
वैसे ही अपना शिकार
कूड़े के ढेर में चुंबक घुमाता
लोहे के टुकड़ों के लिए।।
छोटे-छोटे लोह कणों को
पीठ पर लगे बोरे में भर रहा है।
कभी भरी नाली में
अपनी क़िस्मत आज़माने।
डंडी बंधा चुंबक लगता घुमाने।।
शाम को निवाले का जुगाड़
बड़ी मुश्किल से करता।
दिन भर परिश्रम करता
लेकिन कभी नहीं थकता।।
मलबे के ढेर पर सूअर चर रहे हैं।
उसे देखकर दो तीन कुत्ते भौंक रहे हैं।।
कीचड़ की संडास से मुँह नहीं फेरता
कभी कीचड़ में पाँव धँस जाता।
मुँह में पान दबाए चरते
सुअरों के बीच निकल जाता।।
कभी टूटी फूटी भिनकती
बस्ती में पहुँच जाता।
शाम ढलते मुर्दे जलते
उड़ती और श्मशान की
वीराने आशियाने में पहुँच जाता।।
नित्य कर्म पथ पर चलता
मजबूरी में ज़िंदगी
गुज़र बसर करता।
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