बारिश की भयावहता - कविता - मिथलेश वर्मा

बारिश की भयावहता उनसे पूछो,
जब वर्षा जम के बरसती है।
घासों के छप्पर से बूँदें,
टप-टप कर टपकती है।
बारिश उतनी भी सुंदर नहीं होती,
जितनी कविता में लगती है।

बारिश की भयावहता उनसे पूछो,
जिनके चूल्हे घण्टों में सुलगती है।
भूखे ही सो जाते है बच्चे,
तृष्णा से पेट बिलखती है।
बारिश उतनी भी सुंदर नहीं होती,
जितनी कविता में लगती है।

बारिश की भयावहता उनसे पूछो,
जिनके फसलें बूँदों से पिटती है
बाढ़ से भर जाते हैं खेत,
आत्मा किसान की चीख़ती है।
बारिश उतनी भी सुंदर नहीं होती,
जितनी कविता में लगती है।

बारिश की भयावहता उनसे पूछो,
जिनके फ़सलें माहों में पकती है।
देख अम्बर में मेघों को,
एक पल को आँखें न लगती है।
बारिश उतनी भी सुंदर नहीं होती,
जितनी कविता में लगती है।

बारिश की भयावहता उनसे पूछो,
जिनके नौका लहरों में लपकती है।
फिर आश लगाए भोजन का,
किनारों को पलकें तकती है।
बारिश उतनी भी सुंदर नहीं होती,
जितनी कविता में लगती है।

बारिश की भयावहता उनसे पूछो,
जिनके घर घाटी में बसते है।
थोड़े आँधी पानी से ही,
मृदा, बालू सा सरकती है।
बारिश उतनी भी सुंदर नहीं होती,
जितनी कविता में लगती है।

बारिश की भयावहता उनसे पूछो,
जो नदी किनारे बस्ती है।
बारिश से बढ़ जाता पानी,
और घर कीचड़ से पटती है।
बारिश उतनी भी सुंदर नहीं होती,
जितनी कविता में लगती है।

बारिश की भयावहता उनसे पूछो,
जिनके रातें गलियों में कटती है।
जब बादल-बिजली कड़कती है,
तब मन आश्रय को तरसती है।
बारिश उतनी भी सुंदर नहीं होती,
जितनी कविता में लगती है।

मिथलेश वर्मा - बलौदाबाजार (छत्तीसगढ़)

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