दान - कविता - सुधीर श्रीवास्तव

युगों युगों से चली आ रही
दान की परंम्पराओं का
समय के साथ बदलाव भी दिखा।
देने से अधिक दिखाने का प्रचलन बढ़ा।
थोड़ा देकर अधिक प्रचार कर रहे
जैसे दान नहीं उधार दे रहे।
वैसे दान का तो कोई मोल नहीं है,
हर कोई दान लेता नहीं
पर बहुत पर विवशतावश
उसका धैर्य टिकता नहीं है,
पर अपनी बेबसी के प्रचार से
रोता भी बहुत है।
यह भी विडंबना है कि
ज़रूरतमंद को बमुश्किल दान मिलता है
छद्मवेशी को भरभूर दान मिलता है।
अब तो रक्तदान, नेत्रदान, अंगदान
देहदान को बढ़ावा देने की ज़रूरत है,
इस दिशा में आगे बढ़कर 
दान देने वालों की संख्या
महज मुट्ठी भर है।
जबकि दान के नाम पर
बेटी के बाप का ख़ून चूसने वालों की
कोई कमी नहीं है।
दिखावे के नाम पर पैसा बहाने वालों को
करोड़ों भूखे नंगे लाचार बेबसों
वृद्धाश्रमों, विधवा और
अनाथ आश्रमों की सुध तक नहीं है।
दान का स्तर भी बदल चुका है
अधिकांश दान की भावनाओं के पीछे
अपना अपना स्वार्थ छिपा है।
दान देने से पहले
उसका नफ़ा नुक़सान सोचते हैं,
किसी को दस रुपये की मदद भी 
हज़ार का लाभ सोचकर करते हैं।
जो वास्तव में दान के पात्र हैं
वो बहुत लाचार हैं,
क्योंकि लाइन में सबसे आगे
उनके बहुरुपिए सरदार हैं।
दान का वर्तमान स्वरूप
इतना वीभत्स है,
ऐसा दान लेने और देने से
मर जाना अच्छा है।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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