ऐसे मेरे सुनहरे सपने हैं - कविता - डॉ. सत्यनारायण चौधरी

ऐसे मेरे सुनहरे सपने हैं।
जहाँ नहीं हो कोई पराया,
सब अपने ही अपने हैं।
जात-धर्म का भेद मिटे,
चाहे कितने ही हों अलग वेश,
बस प्यार फले- फूले सदा,
ऐसा सुन्दर हो मेरा देश।
जहाँ नहीं भेदभाव हो
अमीरी-गरीबी का,
नहीं ध्यान रहे ग़ैर और क़रीबी का।
बस याद रहे सब अपने हैं।
ऐसे सुनहरे मेरे सपने हैं।।

मानवता रूपी एक धर्म रहे,
सबके अच्छे कर्म रहें,
यश, वैभव बढ़े देश का।
वापस प्रतिनिधि बने
वसुधैव कुटुम्बकम का।
जहाँ तन ही नहीं, मन भी सुहावने हैं।
ऐसे सुनहरे मेरे सपने हैं।।

भाषाएँ चाहे कितनी बोली जाएँ,
समझें एक-दूजे की भावनाओं को
जैसे शिशु की समझें माताएँ।
अपनी सभ्यता और संस्कृति से,
उत्तर से और दक्षिण से,
पूरब से और पश्चिम से
बना लेंगे हम सबको अपने हैं।
ऐसे मेरे सुनहरे सपने हैं।।

ना कोई भूखा सोए कभी,
कोई निर्बल असहाय महसूस न करे कभी।
महिलाएँ निर्भय होकर जहाँ चाहे जाएँ कहीं और कभी,
आदर, सम्मान और अधिकार मिलें नारी को भी।
थर्ड जेंडर को हिक़ारत से न देखें कभी,
बच्चों का न करें शोषण यह गाँठ बाँध लें सभी।
ऐसे पावन विचार हर भारतीय के अपने हैं।
ऐसे मेरे सुनहरे सपने हैं।।

ख़ुशहाल रहे मेरा देश और ये जग सारा,
प्यार की सुगंध से महके ये विश्व धरा।
न कोई करेगा अब कभी ये तेरा-मेरा।
जब वसुधैव कुटुम्बकम को अपना लेंगें
तो अपना ही होगा जहान सारा।
ये सारा खुली आँखों के सपने मेरे अपने हैं।
ऐसे मेरे सुनहरे सपने हैं... ऐसे मेरे सुनहरे सपने हैं।।

डॉ. सत्यनारायण चौधरी - जयपुर (राजस्थान)

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