सफ़र से हमसफ़र - कहानी - अंकुर सिंह

ये सीट मेरी है, विजयवाड़ा स्टेशन पर इतना सुनते अमित ने पीछे मुड़कर देखा तो एक हमउम्र की लड़की एक हाथ में स्मार्ट फोन और दूसरे हाथ में बैग पकड़े खड़ी थी। जी मेरा सीट ऊपर वाला है ये शायद आपका है अमित ने कहा। ठीक है, अब आप अपना सामान हटा लीजिए और बैठने दीजिए मुझे मेरी सीट पर। इतना सुनते अपना समान हटाते हुए अमित कहने लगा, मेरा नाम अमित है और मुझे बनारस तक जाना है, आप कहा तक जाएँगी? उधर से कोई प्रतिक्रिया आते ना देख अमित चुप हो गया। थोड़ी देर बाद अपना बैग सीट के नीचे रखकर मोबाइल को चार्ज में लगाते हुई वह लड़की बोली मेरा नाम सुमन है और मैं कॉलेज की छुट्टियों में मम्मी के यहाँ पटना जा रही हूँ। अच्छा तो आप बिहार से है और यहाँ विजयवाड़ा में पढ़ाई करती है, अमित को इतने पर रोकते हुए सुमन ने कहा मैं बिहार से हूँ लेकिन केरला में एमटेक की पढ़ाई करती हूँ और विजयवाड़ा में अपने दोस्त के शादी में आई थी। अब छुट्टियों में घर जा रही हूँ, आप क्या करते हो अमित, सुमन ने पूछा। आपके तरह मैं भी इंजीनियर हूँ और माँ की तबियत सही नहीं है इसलिए गाँव जा रहा हूँ माँ से मिलने। क्या हुआ आपकी माँ को? सुमन के पूछने पर अमित ने बताया कि माँ की तबियत अकसर ख़राब रहती है और इस समय थोड़ा ज़्यादा ख़राब हो गई है इसलिए गाँव जा रहा हूँ। इतने में टिकट-टिकट कहते हुए टीटी की आवाज़ सुनाई पड़ती है, अमित ने अपना टिकट टीटी को दिखाकर सुमन से कहा कि मेरी सीट ऊपर वाली है और थोड़ी देर में डिनर करके मैं अपनी सीट पर चला जाऊँगा। कोई बात नहीं मैं भी डिनर के बाद सोऊँगी तब तक बैठ सकते है आप।

थोड़ी देर बाद अपनी टिफिन खोलते हुए अमित ने कहा आप भी लीजिए। नहीं आप खाइए, मैं टिफिन साथ लाई हूँ सुमन से इतना सुनते अमित ने कहा चलिए फिर साथ में डिनर करते हैं। डिनर के बाद सुमन ने अमित से कहा आपका खाना तो काफ़ी अच्छा था, आपने ख़ुद बनाया था? नहीं-नहीं ऑफिस से पैक कराया था मैने अमित ने जवाब दिया। चलो अच्छा है आप हिंदी बोल लेते हो। शायद पूरे बोगी में हम दो ही हिंदी भाषी हैं। आपकी सीट पास में नहीं होती तो मैं बोर हो जाती। इतना सुनते अमित ने कहा अरे ऐसे कैसे? आप बोर न हो तभी तो भगवान ने मुझे यहाँ भेजा हैं, इतने पर दोनो जोर से हँस पड़े।

पूरें सफ़र में दोनों एक दूसरे के पसंद-नापसंद, परिवार, पढ़ाई इत्यादि को लेकर ऐसे बात कर रहें थे जैसे उनकी ये पहली मुलाक़ात नहीं बल्कि बरसों पुरानी जान पहचान हो। अगले सुबह भोर में अमित का स्टेशन आ गया, उसने सुमन की तरफ देखा वह सो रहीं थी, उसकी नीद ख़राब न हो इसलिए अमित ने उसे जगाना ज़रूरी नहीं समझा और सीट के नीचें से अपना बैग निकालने लगा। इसी बीच सुमन घबरा कर उठी और नीद में कौन हो, कौन हो कहने लगी। अरे सुमन, मैं अमित! मेरा स्टेशन आ गया और मैं अपना बैग निकाल रहा था।
क्या बनारस आ गया, अमित?  मुझसे बिना मिले जा रहें थे तुम, जगाना भी ज़रूरी नहीं समझा?
अरे सुमन! मैंने सोचा तुम्हें क्यों परेशान करूँ इतना सुनते ही सुमन बोल पड़ी बिना मिले जाते तो मैं क्या परेशान नहीं होती? सुमन के इन शब्दों से अमित को वही अहसास हुआ जो उसके दिल में हो रहा था। फिर उसने सुमन से कहा- सुमन, चाहता तो मैं भी नहीं था की बनारस स्टेशन इतनी जल्दी आए पर अब मेरी मंज़िल आ गई और हमारा सफ़र यहीं ख़त्म हुआ। कैसा सफ़र अमित, हमारी तो ट्रेन की सफ़र ख़त्म हुई है दोस्ती की नहीं सुमन ने जवाब दिया। इतने में ट्रेन ने बनारस छोड़ने का हॉर्न बजा दिया और अमित सुमन को बाय कहते हुए अपना बैग निकाल कर चल पड़ा सुमन भी दरवाज़े तक अमित को बाय-बाय कहते हुए छोड़ने आई।

अगले कुछ महीनों तक दोनों एक दूसरे से बात करते रहें और कुछ महीनों बाद सुमन ने भी अपनी पढ़ाई पूरी कर ली और अब नौकरी करने लगी। फिर एक दिन दोनों ने निश्चय किया क्यों न इस दोस्ती के सफ़र को कभी न ख़त्म होने वाला सफ़र बना लें। फिर दोनों ने अपने-अपने घर में एक दूसरे के बारे में बताकर शादी करने की बात कहीं। घर वालों ने भी उनकी ख़ुशी के लिए उनको एक दूसरे का हमसफ़र बना दिया।

जीवन के कई साल साथ बिताने पर जब अमित और सुमन अपने ख़ुशी भरे परिवार और बच्चें को देखते है तो उनकी ज़ुबाँ से निकल पड़ता है की ये बच्चें, हमारे जीवन में ट्रेन के उस डिब्बे की तरह है जिसके सफ़र ने हमें हमसफ़र बना दिया।

अंकुर सिंह - चंदवक, जौनपुर (उत्तर प्रदेश)

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