सीखें सिखाएँ - आलेख - सुधीर श्रीवास्तव

ये हमारा सौभाग्य और ईश्वर की अनुकंपा ही है कि हमें मानव जीवन मिला, तो ऐसे में हम सभी की ये ज़िम्मेदारी है कि हम इस चार दिन के लिए नश्वर शरीर का घमंड न करें बल्कि इस जीवन की सार्थकता सिद्ध करने का प्रयास करें, इसके लिए हमें अधिक कुछ नहीं करना है, बल्कि सिर्फ़ अपना ही नहीं औरों के भी जीवन को बनाने का प्रयास करना चाहिए है।

अब तक के विभिन्न आयामों से गुज़रते हुए जो कुछ भी हमनें सीखा, अनुभव किया, उसे अपने छोटों, कम जानकार और कम अनुभवी लोगों में बाँटना है, उन्हें सिखाना है, दिशा देना है। साथ ही हमें अपने से अनुभवी, ज्ञानी और वरिष्ठों से ग्रहण भी करना है। इस सतत प्रक्रिया को विकसित करना भी है।

लेना और देना यह स्वाभाविक किंतु अनिवार्य प्रक्रिया है, सही मायनों में इसके बिना भला जीवन कहाँ चल सकता है। अतः न ही सिर्फ़ देना सीखिए बल्कि संकोच और अहम छोड़कर लेना भी सीखिए। 
जीवन को बनाना है तो सीखने सिखाने की मनोवृत्ति का विकास, नए आयाम तक ले जाने का प्रयास कीजिए और जीवन की सार्थकता सिद्ध करने की लगातार कोशिश कीजिए।

जो भी आपके पास है उस पर कुँडली मार का मत बैठिए, उसे लोगों में बाँटिए साथ ही जो आपके पास नहीं है, उसे लेने, ग्रहण करने और सीखने के भावों का विकास कीजिए। ऐसा कीजिए फिर महसूस कीजिए कि आपकी ज़िंदगी बन जाएगी, सँवर जाएगी, ख़ुशियों से भर जाएगी, जीवन में उमंग, उत्साह की गंगा स्वतः प्रवाहित होने लगेगी।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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